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प्रथमोन्मेषः चमत्कार आ गया है, वह इसी रुढिशब्द राम के प्रयोग से ही, जो कि सुबन्त पद का पूर्वार्द्ध है । अतः यह पदपूर्वार्द्धवक्रता का पहला भेद हुआ।)
( अब पदपूर्वार्द्धवक्रता का ) दूसरा ( भेद बताते हैं ) जहाँ पर संज्ञा शब्द का ( उसके ) वाच्य रूप से प्रसिद्ध धर्म के अलौकिक अतिशय का आधार ग्रहण कर कवि द्वारा प्रयोग किया जाता है ( वहां पदपूर्वार्दवक्रता का दूसरा भेद होता है ), जैसे
रामोऽसौ भुवनेषु विक्रमगुणैः प्राप्तः प्रसिद्धि परामस्मद्भाग्यविपर्ययाद्यदि परं देवो न जानाति तम्। . वन्दीवैष यशांसि गायति मरुद्यस्यैकवाणाहतिश्रेणीभूतविशालतालविवरोद्गीणैः स्वरैः सप्तभिः ॥ ४ ॥
( यह पद्य काव्यप्रकाश आदि में उद्धृत हुआ है। उसके टीकाकार माणिक्यचन्द्र 'राघवानन्द' नामक अप्राप्य नाटक का पद्य बताकर इसे कुम्भकर्ण की उक्ति बताते हैं, जब कि 'चन्द्रिकाकार' इसे रावण के प्रति कही गई विभीषण की उक्ति बताते हैं। वस्तुतः यह उक्ति विभीषण की सी लगती है । नाटक के अप्राप्य होने से निश्चित कुछ नहीं कहा जा सकता । अतः इसे हम विभीषण की ही उक्ति के रूप में स्वीकार करेंगे। तो विभीषण रावण से कहता है कि ) यह (खरदूषण एवं बालि आदि का वध करनेवाला तथा मारीच एवं सुबाहु को परास्त करनेवाला) राम ( अपने ) शूरता के गुणों द्वारा सभी लोकों में अत्यधिक प्रसिद्ध हो गया है। लेकिन यदि हम सभी के दुर्भाग्य से उस ( प्रसिद्ध राम ) को स्वामी नहीं जानते ( तो क्या कहा जाय), जिसके कि यश का गान, यह वायु ( भी ) बन्दी के समान, एक (ही ) बाण के प्रहार से ( एक ) पंक्ति में स्थित बड़े-बड़े ( सात ) ताड़ ( के वृक्षों ) के विवरों से निकले हुए सातों स्वरों द्वारा, कर रहा है ।। ४३ ।।
अत्र रामशब्दो लोकोत्तरशौर्यादिधर्मातिशयाध्यारोपपरत्वेनोपात्तो वक्रतां प्रथयति ।
यहाँ ( इस श्लोक में प्रयुक्त ) 'राम' शब्द ( जो कि एक संज्ञा शब्द है, वह राम के वाच्य रूप में प्रसिद्ध शौर्यादि धर्म की ही अलौकिकता का प्रतिपादन करनेवाले ) अलौकिक शौर्यादि धर्म के अतिशय के अध्यारोप को आधार लेकर गृहीत हुआ वक्रता (अपूर्व चमत्कार ) की सिद्धि करता है।
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