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वक्रोक्तिजीवितम्
टिप्पणी- पदपूर्वार्द्धवकता के इन दोनों ही भदों के उदाहरणों में आचार्य कुन्तक ने 'राम' शब्द में ही वक्रता दिखाई है, पर उन दोनों में मौलिक भेद यही है कि पहले भेट में रूढिशब्द के वाच्य रूप से प्रसिद्ध धर्म से भिन्न धर्म के अतिशय के अध्यारोप को आधार मानकर रूढि शब्द का प्रयोग किया जाता है जब कि दूसरे भेद में संज्ञा शब्द के वाच्य रूप से प्रसिद्ध धर्म के ही अलौकिक अतिशय के अध्यारोप को आधार मान कर संज्ञा शब्द का प्रयोग किया जाता है ।
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पर्यावक्रत्वं प्रकारान्तरं पदपूर्वार्ध वक्रतायाः - यत्रानेकशब्दाभिषेयत्वे वस्तुनः किमपि पर्यायपदं प्रस्तुतानुगुणत्वेन प्रयुज्यते ।
यथा
( आचार्यं कुन्तक पदपूर्वार्द्धवत्रता के पूर्वोक्त दो भेदों की व्याख्या कर तीसरे भेद 'पर्यायवक्रता' को प्रस्तुत करते हैं कि ) पदपूर्वार्द्धवत्रता का अन्य ( तृतीय ) भेद 'पर्यायवकता' है। जहाँ पर ( किसी ) वस्तु की ( अन्य बहुत से शब्दों द्वारा अभिधेयता ( सम्भव ) होने पर ( भी ) किसी ( अपूर्व रमणीयता युक्त दूसरे ही ) पर्यायवाची शब्द का प्रकरण के अनुकूल प्रयोग किया जाता है ( वहाँ पर्याय वक्रता होती है ) जैसे :
वामं कज्जलवद्विलोचनमुरो रोहद्विसारिस्तनं मध्यं क्षाममकाण्ड एव विपुलाभोगा नितम्बस्थली । सद्यः प्रोद्गत विस्मयैरिति गणैरालोक्यमानं मुहुः पायाद्व प्रथमं वपुः स्मररिपोर्मिश्रीभवत्कान्तया ॥ ४४ ॥
( इस पद्य में पार्वती तथा शंकर के प्रथम संयोग का वर्णन प्रस्तुत किया गया है कि पार्वती के साथ शङ्कर का शरीर जिस समय एक-दूसरे से संयुक्त हुआ ) काजल से युक्त वामनेत्रवाला, एवं विकसित होते हुए विशाल स्तन से युक्त वक्षःस्थल वाला, और अनायास ही क्षीण हो गये मध्यभाग से युक्त, तथा बड़े विस्तारवाली नितम्बस्थली से युक्त, तत्काल उत्पन्न विस्मय वाले शङ्कर के गणों के द्वारा पहले-पहल बार-बार देखा जाता हुआ, कान्ता (पार्वती) के ( शरीर के ) साथ मिश्रित होता हुआ, कामदेव के शत्रु ( भगवान् शङ्कर ) का शरीर आप लोगों की रक्षा करे ।। ४४ ।।