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वक्रोक्तिजीवितम् यहाँ इस पद्य में केवल वर्णों के विशेष ढंग की रचना से उत्पन्न शब्द का शोभातिशय बड़े ही सुन्दर ढंग से ( कवि ने ) उन्मीलित किया है। यही वर्णविन्यास वक्रता प्राचीन आलङ्कारिकों (के ग्रन्थों) में 'अनुप्रास' नाम से प्रसिद्ध रही है। इसके भेद विशेषों के स्वरूप का निरूपण लक्षण करते समय ( २११ में ) किया जायगा।
पदपूर्वार्धवक्रता-पदस्य सुबन्तस्य तिअन्तस्य वा यत्पूर्वाध प्रातिपदिकलक्षणं धातुलक्षणं वा तस्य वक्रता वक्रभावो विन्यासवैचित्र्यम् । तत्र च बहवः प्रकाराः संभवन्ति ।
( अब कविव्यापार वक्रता के दूसरे भेद का वर्णन करते हैं )पदपूर्वार्द्ध वक्रता-सुबन्त अयवा तिङन्त पद का जो प्रातिपदिक रूप अथवा धातु रूप है उसकी वक्रता, वक्रभाव अर्थात विशेष ढंग की रचना का वैचित्र्य ( पदपूर्वार्द्ध वक्रता होती है ) । उसके बहुत से भेद सम्भव होते हैं । __ यत्र रूढिशब्दस्यैव प्रस्तावसमुचितत्वेन वाच्यप्रसिद्धधर्मान्तराध्यारोपगर्भत्वेन निबन्धः स पदपूर्वार्धवक्रतायाः प्रथमः प्रकारः । यथा
- रामोऽस्मि सर्व सहे ।। ४२ ।। द्वितीयः-यत्र संज्ञाशब्दस्य वाच्यप्रसिद्धधर्मस्य लोकोत्तरातिशयाध्यारोपं गर्भीकृत्योपनिबन्धः । यथा
जहाँ पर रूढि शब्द का ही, प्रकरण के अनुकूल वाच्य रूप से प्रसिद्ध (धर्म) से अतिरिक्त धर्म के अध्यारोप के आधार पर निबन्धन किया जाय वह पदपूर्वाद्धं वक्रता का पहला भेद होता हैं जैसे ( महानाटक के निम्न पद्य
स्निग्धश्यामलकान्तिलिप्तवियतो वेल्लद्वलाका घना वाताः शीकरिणः पयोदसुहृदामानन्दकेकाः कलाः। कामं सन्तु दृढं कठोरहृदयो रामोऽस्मि सर्व सहे
वैदेही तु कथं भविष्यति हहा हा देवि धीरा भव ॥ में प्रयुक्त) 'रामोऽस्मि सर्व सहे' अर्थात् 'मैं राम हूँ सब कुछ सहन कर लूंगा' ( इस वाक्य में प्रयुक्त राम शब्द में पदपूर्वाद्धं वक्रता है। क्योंकि यहाँ पर प्रयुक्त राम शब्द अपने वाच्य रूप से प्रसिद्ध धर्म अर्थात् दशरथपुत्रत्व रूप से भिन्न अत्यधिक दुःखसहनशीलता रूप धर्म को आधार लेकर कवि द्वारा प्रयुक्त किया गया है। अतः यहाँ जो कवि-विरचित वाक्य में एक अपूर्व