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प्रथमोन्मेषः
( शास्त्रों) की गौणता है फिर भी समस्त वाग्विलास का प्राणभूत यह साहित्य स्वरूप कवि का व्यापार ही वस्तुतः सर्वत्र सर्वातिशायी ( सवसे अधिक महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि यह जहाँ अन्य ( व्याकरणादि के ) वाक्य-सन्दर्भो में गौण रूप से स्थित रहकर भी अपनी गन्धमात्र (परिमल मात्र ) से ही संस्कार प्रारम्भ कर देता है उस- ( वाक्य सन्दर्भ ) में इसकी केवल थोड़ी सी संस्कार में कमी आने से ही सुन्दरता का अभाव हो जाता है जिससे उस वाक्य-सन्दर्भ की उपादेयता की बहुत हानि होती है और इस प्रकार उस वाक्य की प्रवृत्ति के व्यर्थ हो जाने का प्रसङ्ग आ जाता है ( अर्थात् वह वाक्य-रचना शोभाहीन होकर बेकार हो जाती है। इससे सिद्ध हुआ कि व्याकरण-मीमांसा आदि अन्य शास्त्रों की अपेक्षा साहित्य शास्त्र सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । ) तथा इस ( साहित्य शास्त्र ) का (अन्य ) शास्त्रों से भिन्न प्रयोजनों से मुक्त होना, एवं (धर्मादि का प्रतिपादन करनेवाले.) शास्त्रों के द्वारा सम्पादित होने वाले (धर्मादि ) चतुर्वर्ग से अधिक फलों से युक्त होना, पहले ही ( १।३,५) प्रतिपादित किया जा चुका है।
अपर्यालोचितेऽप्यर्थे बन्धसौन्दर्यसम्पदा ।
गीतवद्धृदयाह्लादं तद्विदां विदधाति यत् ।। ३७ ।। अर्थ का पर्यालोचन किये बिना भी ( अर्थात् बिना अर्थ को समझे हुए ही) वाक्य का विन्यास की सौन्दर्य रूप सम्पत्ति के द्वारा जो गीत के सदृश ( तद्विद् ) सहृदयों के हृदयों को आह्लादित कर देता है ।। ३७ ॥
वाच्यावबोधनिष्पत्तौ पदवाक्यार्थवर्जितम् |
यत्किमप्यर्पयत्यन्तः पानकास्वादवत्सताम् ॥ ३८ ॥ ( तथा ) अर्थ ज्ञान के सम्पन्न हो जाने पर पद ( के अर्थ अर्थात् संकेतित अर्थ ) तथा वाक्यार्थ ( तात्पर्यार्थ ) से अतिरिक्त ( व्यंग्यरूप रसादि के द्वारा गुड-मरिचादि से निष्पन्न ) पानक ( रस ) के आस्वाद की तरह जो सहृदयों के हृदयों को किसी ( अनिर्वचनीय रसास्वाद के आनन्द ) को प्रदान करता है ।। ३८ ।।
शरीरं जीवितेनेव स्फुरितेनेव जीवितम् ।
विना निर्जीवतां येन वाक्यं याति विपश्चिताम् ।। ३६ ॥ ( तथा ) जैसे प्राण के बिना शरीर तथा स्पन्द के बिना प्राण (निष्प्राण हो जाते हैं उसी प्रकार ) जिस ( तत्त्व ) के बिना विद्वानों के वाक्क निष्प्राण ( सहृदयाह्लादकारिता से हीन ) हो जाते हैं ॥ ३९ ॥