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* तारण-वाणी
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भेद करना होता तो वे अपनी इस गाथा में तो यह कहते कि निश्चय में ऐसी प्रतिमा वंदनीय है तथा दूसरी गाथा व्यवहार में जिस तरह की प्रतिमा वंदनीय होती वैसा कथन कर देते ।
कोई यह कहे कि-श्री कुंदकुंद स्वामी ने तो यह निश्चयनय का ग्रंथ रचा है । जो यदि यह केवल निश्चयनय का ही ग्रंथ होता तो फिर इसी प्रथ में चारित्रपाड़ में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं ( दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास इत्यादि ) का कथन क्यों करते ? अथवा श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का जहां व्यवहार में मानने वाली प्रतिमा का कथन तो अवश्य ही कर देना था कि अव्रती श्रावक तथा प्रतिमाधारी व्रती श्रावकों को व्यवहार में धातु पाषाण की प्रतिमा बंदनीय है।
किन्तु जब मुनि के निश्चयरूप चारित्र में और श्रावक के व्यवहाररूप चारित्र में कोई रश्वमात्र कथन न तो प्रतिमा का और न उसकी अष्टद्रव्य से पूजन का ही मिलता है तब बिचार होता है कि फिर किम आधार से इसे मान्य समझे ? और कुछ विचार करें।
कोई कहे कि यह तो अति श्रावकों के लिये पहली सीढ़ी है तो भी आचार्यो के लिये इसका कथन पाक्षिक या नैष्ठिक श्रावकों के विधि विधान में अर्थात् उनके नियमों में-अष्टमूल गुणों में अथवा सम्यक्त्व के अष्ट अंगों में कहीं भी तो स्थान देते; सो स्थान तो दूर रहा गंध तक कहीं नहीं पाई जाती। तथा मान लो अष्ट द्रव्य से पूजन में श्रावक का इल्य की व्यवस्था में यथाशक्ति पांच दश या कितने भी जो खर्च हो जाते हैं वह खर्च चारों दान में से किसी दान में या पांचवां दान द्रव्यपूजादान ऐसा कुछ भी कहीं किसी भी दर्बाजे से प्रवेश कर जाते सो भी नहीं । सिद्धांत शाखों में जहाँ तक देखते हैं चारों तरफ दर्वाजे बन्द पाए जाते हैं। कथा पुराणों की बात का सिद्धांतदृष्टि से यदि मिलान न बैठे तो कोई दर्वाजा माना नहीं जाता, यह सभी विद्वद्वर्ग जानते ही हैं। क्योंकि झाँसी में जब लगभग ३० वर्ष पहिले आर्यसमाज से अपने जैन विद्वानों का शास्त्रार्थ हुआ था तब अपने विद्वानों ने पहिले ही यह स्पष्ट कर दिया था कि शास्त्रार्थ में किन्हीं भी कथा प्रथों ( प्रथमानुयोग के प्रथों ) का प्रमाण न मानेंगे क्योंकि कथा प्रथों की सभी बातें सैद्धांतिक नहीं होती हैं। सिद्धप्रतिमा निरूपण
दसणअणतणाणं अगंतवीरिय अणंतसुक्खा य । सासयसुक्ख अदेहा मुका कम्मबंधेहि ॥१२॥ निरुवममचलमखोहा निम्मिवियाजंगमेण हवेण । सिदहाणम्मि ठिया बोसरपडिमा धुवा सिद्धा ॥१३॥