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* तारण - वाणी *
चैत्य का अर्थ आत्मा है, प्रतिमा नहीं
श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने - बोधपाहुड़ में आठवीं गाथा विषै चैत्य-श्र - श्रात्मा को कहा प्रतिमा को नहीं, तथा चैत्यगृह सच्चे मुनि के शरीर को कहा है, प्रतिमा रखे जाने वाले स्थान - चैत्यालय अथवा जिनालय अथवा जिनमन्दिर को नहीं । जामें आपा पर का जानने वाला ज्ञानी fasure निर्मल ऐसा चैत्य कहिये चेतना स्वरूप आत्मा बसै सो चैत्यगृह है, सो ऐसा चैत्यग्रह संयमी मुनि है।
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तात्पर्य यह कि अर्थ का अनर्थ बता कर प्रवृत्ति चल पड़ी है । चैत्य का अर्थ चेतनास्वरूप आत्मा, जिनका अर्थ जो आत्मा सम्यक्त्व होकर कर्मों को जीतने लगे, वास्तविक अर्थ यह है | जबकि लोग इस वास्तविक अर्थ को न जान कर मनमाना अर्थ करने लगे । यानी चैत्य मानें प्रतिमा और प्रतिमा का स्थान चैत्यालय ( जिस मन्दिर में शिखर नहीं होती उसे चैत्यालय कहा जाता है) कहने लगे, जिन माने जिनप्रतिमा और जिनप्रतिमा के स्थान को जिनमन्दिर या जिनालय कहने लगे ।
इसी विषय को हवीं गाथा में और भी स्पष्ट किया गया है कि लौकिक जन चैत्यग्रह का स्वरूप अन्यथा माने हैं तिनकू सावधान किया है- जो जिन सूत्र में छह काय का हित करने वाला ज्ञानमयी संयमी मुनि है सो चैत्यग्रह है । आगे जिनप्रतिमा का निरूपण करे हैं
सपरा जंगमदेहा दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं । निग्गंथवीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा || १० |
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जं चरदि सुद्धचरणं जाणइ पिच्छे सुद्धसम्मत्तं । सा होई वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा || ११ ॥
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उपरोक्त इन दो गाथाओं में तो जिनप्रतिमा का स्वरूप स्पष्ट भइने की भांति कह कर ' सा होई बंदरणीया' ऐसी प्रतिमा वंदनीय है । जो दर्शन ज्ञान करि शुद्ध, निर्मल है चरित्र जिनके writer पर की चालती देह है सो जिनमार्ग विषै जंगम प्रतिमा है । जो शुद्ध आचरण के meet agr सम्यग्ज्ञान करि यथार्थ वस्तु कूं जाने है बहुरि सम्यग्दर्शन कर अपने स्वरूप कू देखे है ऐसें शुद्ध सम्यक्त जार्के पाइये है ऐसी संयम स्वरूप प्रतिमा है सो बंदिवे योग्य है । श्री कुंदकुंद स्वामी ने वंदनीय प्रतिमा का जो वास्तविक स्वरूप था सो कहा; इसमें निश्चय और व्यवहार का कोई प्रयोजन हो नहीं। जैसे दश दश मिल कर बोस ही होंय हैं, इसमें कोई भेद निश्चय और व्यवहार का नहीं । यदि श्री कुन्दकुन्द स्वामी को निश्चय और व्यवहार का कोई