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* तारण-वाणी *
इसमें पंच परमेष्ठी, प्रतिमाधारी श्रावक तथा सभी सम्यक्ती जीवों को चाहे वे देवयोनि में हो. मनुष्य हों अथवा पशु व नर्क में भी क्यों न हों, सबको वंदना की गई है।
हां, तो अब आप समझिए कि भेदज्ञानी ऐमी परणति वाले चौथे गुणस्थानवर्ती अविरत मायग्दृष्टि गृहस्थ श्रावक को पंच परमेष्ठी और ऐलक-क्षुल्लकादि प्रतिमाधारी श्रावकों के साथ में वदना की गई है। क्योंकि सम्यक्त का ऐसा ही माहात्म्य जैनधर्म में है।
एसा अविरतसम्यग्दृष्टि श्रावक ( गृहस्थ ) जघन्य अन्तरात्मा है व प्रतिमाधारी श्रावक पंचम गुणस्थानवर्ती से ग्यारहवें गुणस्थान वाले मुनीश्वर मध्यम अन्तरात्मा तथा बारहवें गुणस्थान यथाख्यानचारित्र वाले मुनिराजों को उत्तम अन्तरात्मा कहा है । परमात्मा के दो भेद सकल परमात्मा अरहन्त व निकल परमात्मा श्री सिद्ध भगवान को, इस तरह से श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने
प्रकरण है कि जिनपूजा क्या है, जिस जिनपूजा के फल से हम तीनलोक के देवताओं द्वारा पूज्य हो जाते हैं ? वही इसमें बताया गया है कि-चौथे गुणवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि श्रावक त्रो 'जिनसंज्ञा' प्राप्त हो जाती है, भले ही वह गृहस्थ हो । यानी यदि हम गृहस्थ हैं और हमने सम्यक्त प्राप्त कर लिया है तो हमारी आत्मा 'जिन' हो गई, क्योंकि वहीं से यह हमारी आत्मा जनपद वाली हो जाती है कि जहां हमें सम्यक्त हुआ और उसके होते ही संसार से उदासीनता आई तथा हमारी क्रोध, मान, माया व लोभ कषाएँ उपसम ( मन्द ) होने लगों तथा सम्यक्त के प्रभाव से अविपाकनिर्जरा होने लगी अर्थात् बिना रस दिये ही कर्म खिरने लगे; मानो हमारी घात्मा स्वयं जिन' हो गई। अब हमें करना है जिनपूजा । इसके पहिले यह बतादें कि 'जिन' की भी तीन श्रेणी हैं । पहली जिन, दूसरी जिनवर, तीसरी जिनेन्द्र । जिनश्रेणी चौथे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान पर्यन्त अर्थात् केवलज्ञान नहीं हुआ वहाँ तक के मुनि अथवा श्री गणधर मब ही 'जिन' हैं । जिन्हें केवलज्ञान हो गया ऐसे समस्त ही सामान्य केवली जिनवर हैं तथा उन सबमें इन्द्र के समान श्री तीर्थंकर भगवान 'जिनेन्द्र' हैं । अब हमें जिनेन्द्र-पूजा नहीं, जिनवर-पूजा नहीं, 'जिनपूजा' करने को श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि जो श्रावक जिनपूजा' करता है वह तीनलोक के देवों द्वारा पूज्य होता है।
यह पहले बता दिया है कि अभी हम जो अष्टद्रव्य से अरहन्त अथवा जिनेन्द्रदेव की पूजा करते हैं इस पूजा करने से हम तीनलोक के देवों द्वारा पूज्य नहीं हो सकेंगे अर्थात् अरहन्त पद नहीं पा सकेंगे, क्योंकि तीनलोक के देवों द्वारा पूज्य वे ही होते हैं । जबकि सम्यक्ती केवल विनय-नमस्कार का पात्र होता है दूसरों के द्वारा, उस श्रेणी का सर्वोत्कृष्ट पूज्य नहीं होता जिस सर्वोत्तम श्रेणी में श्री अरहन्त व भी तीर्थकर होते हैं, जिनकी पूजा व प्रभावना देव