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* तारण-वाणी
स्थान वाला होता है, जिसमें संसार से सच्ची उदासीनता आ जाती है और वह गृहस्थ होने पर भी "गेही पै गृह में न रचे, ज्यों जलमें भिन्न कमल है; नगरनारि को प्यार यथा कादे में हेम अमल है" ऐसी परिणति जिसकी बन जाती है। यहीं से उसे जिन संज्ञा' प्राप्त हो जाती है, जिसके लिये समयमार जी ग्रन्थ में श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने तथा समयसार नाटक प्रन्थ में श्री ५० बनारसीदासजी ने ऐसे उदासीन चौथे गुणस्थान वाले श्रावक को 'भगवान का छोटा पुत्र' कहा है
भेदविज्ञान जग्यौ जिनके घट, शीतल चित्त भयौ जिमि चन्दन । केलि करें शिवमारग में, जगाँहि जिनेश्वर के लघुनन्दन । मत्य स्वरूप सदा जिन्हके, प्रगटयो अवदात मिथ्यात-निकंदन ।
शांत दशा तिन्हकी पहिचानि, करें कर जोर बनारसि बंदन ॥६॥ आत्मकल्याणार्थी सज्जनो ! इसे समझो और भगवान के छोटे पुत्र ( भगवान के प्रेमी अथवा आगे चलकर स्वयं भगवान ) बनो, तथा अपनी परणति ( भले ही तुम आज गृहस्थ हो तो भी ) ऐसी बनायो कि
स्वारथ के सांचे, परमारथ के सांचे, चित्त सांचे, सांचे बैन कहें, सांचे जैनमती हैं । काहू के विरुद्धि नाहि, परजाय-बुद्धि नाहि, आतमगवेषी, न गृहस्थ हैं न जती हैं । रिद्धि-सिद्धि-वृद्धि दीसै घट में प्रगट सदा, अन्तर की लच्छि सों अजांची लच्छपती हैं। दास भगवन्त के, उदास रहें जगत सों, सुखिया सदैव, ऐसे जीव समकिती हैं ॥७॥
जाके घट प्रगट विवेक गनधर को सौ, हिरदै हरख महामोह कौं हरतु है । सांचौ सुख मानै निज महिमा अडौल जानें, आपुही में आपनौ सुभाव ले धरतु है ।। जैसे जलकर्दम कतक फल भिन्न करे, तैसे जीव अजीव विलक्षनु करत है। मातम सकति साधे, ज्ञान को उदो आराधे, सोई समकिति भवसागर तरतु है ।।८।।
नाटक समयसार छन्दोबद्ध ६० बनारसीदास कृत के प्रथम स्तुति अध्याय में उपरोक्त तीन सवैयों में ही बनारसीदास जी ने कहा है कि-एक गृहस्थ ही क्यों न हो वह भी भेदज्ञान प्राप्त करके सम्यक्ती होकर भगवान के छोटे पुत्र जैसा बनकर मनुष्य तथा देवों द्वारा पूज्य व नमस्कार का पात्र बन सकता है । ऐसे समकिती पुरुषों को श्री पं० बनारसीदास जी जो कि पंडित होने पर भी आज आचार्यकोटि जैसे विद्वान व मान्य समझ जाते हैं, उन्होंने भी हाथ जोड़कर बंदना की है । और भी सुनिए, जैनधर्म में एक बंदना हैप्रथम प्रणमि अरहन्त, बहुरि श्री सिद्ध नमिज्जे, प्राचारज, उवज्झाय, साधु पद वंदन किज्जे ।
साधु सकल-गुणवंत-शांतिमुद्रा लखि बंदों, श्रावक पडिमा धरण चरण लखि पाप निकंदों ।। सम्यक्तवत स्वभाव धर जीव जगत में होंहि जित, तित तित त्रिकाल बंदत भावसहित सिर नाय नित ॥