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• तारण-वाणी *
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३७-काष्ठ पाषाण दिस्ट च, लेपं चित्र अनुरागतः । पाप कर्म च बर्द्धन्ति, त्रिभंगी असुह दलं । काष्ठ पाषाण की मूर्ति तथा लेप चित्र; इन्हें अनुरागपूर्वक अवलोकन में -अनुराग करने में पापकर्म की वृद्धि होती है।
___३८-अपगत परमानंद, विगत संसारसरनि मोहंध । गय संकप्प वियप्प, मिच्छा कुज्ञान सयल वीयम्मि ॥ श्रात्मानंद प्राप्त होने पर-संसार भ्रमण का कारण जो दर्शनमोहनीय कर्म वह तथा संकल्प विकल्प और मिथ्यात्व व कुज्ञान के समस्त वीज, जितने भी कारण है वे समस्त दूर हो जाते हैं।
____३-विरियं मूढ़ सुभावं, सुद्ध सरूब निम्मलं सुद्ध। आत्मीक शुद्ध परिणति के जाग्रत होने पर मूढ स्वभाव अर्थात् तीनों मूढ़तायें-देवमूढ़ता गुरूमूढ़ता और पाखंडमूढ़ता इस ही का दूसग नाम है लोकमूढ़ता, यह छूट जाती हैं, जिनकं छूट जाने पर उत्तरोत्तर प्रात्म-परिणाम निर्मल होते जाते हैं।
४.- ज्ञान समुच्चय भनियं, सद्दहन रूव भेदविज्ञानं । ज्ञान ज्ञान सरूवं, खवई संसार सरनि मोहंधं ॥ श्री तारन स्वामी कहते हैं कि ज्ञान का समुच्चयसार यही है कि भंदविज्ञान के द्वारा आत्मस्वरूप को जान कर उसी का श्रद्धान करो, ज्ञान से ज्ञानस्वरूप की वृद्धि होती है व संसार--भ्रमण का कारण जो मोहनीकर्म--मोहान्धकार वह दूर हो जाता है ।
४१-गहनविलय, अगहनु गहउ, भय सल्य संक विलयतु । श्रात्मज्ञान होने पर--जो मिथ्यात्व इत्यादि ग्रहण कर रखा है वह तो विलीयमान हो जाता है तथा जो आज तक प्राप्त नहीं कर सके वह सम्यक्त प्राप्त हो जाता है व भय, शल्य, शंकायें सब दूर हो जाती है ।
४२--अर्क न हस्यत नक-जो आत्मप्रकाश नहीं करते वे नक--दुख देखते हैं ।
४३-अकस्य नन्त सुभाव-कैसा हे वह आत्मप्रकाश, अनंत चतुष्टय (अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनन्तबल और अनन्तसुम्व) रूप है।
४४-अर्कस्य उत्पन्न अक-प्रात्मप्रकाश से ही प्रात्मप्रकाश की वृद्धि होती है अर्थात आत्मज्ञान का नाम ही आत्मप्रकाश है। ज्ञान से ज्ञान बढ़ता है ।
४५-अर्कस्य विशेष-आत्मप्रकाश की विशेषतायें
उत्पनअर्क-ज्ञान की जाति, दस उत्पन्न-दर्शन की उत्पत्ति, न्यान विन्यान उत्पन्न-मंदज्ञान को जापति, उत्पन्न सूक्ष्म सुभाव-परिणामों की बाराक परख, सूक्ष्मक्रांति-बदलते हुए परिणामों को बारीकी से परख, सुक्खेन रमण-आत्मसुख में रमणता, सुक्खेन क्षायक-श्रात्मसुख में स्थिरता, दुक्खेन विलयंगता-सर्व दुखों का विनाश हो जाता है।
४६-उत्पन्न न्यान मिलन-उत्पन्न हुए ज्ञान मिलन से
रञ्जरमण-आनन्दलीनता, भयविनस्य-सप्त भयों का विनाश, नन्द सन्दनरूप-नन्द