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* तारण-वाणी
नारकस्य" को बताने वाला है। क्योंकि प्रारंभ परिग्रह का संचय व दिखावा तथा रागरंग की परको प्रसन्न करने वाली प्रवृत्ति ही रौद्रध्यान (परिग्रहानंदी रौद्रध्यान) नर्कगति का बन्ध करने वाली है, यह तारण स्वामी ने बताया है।
२१-राग उवन्न भावं, राग-संसार सरनि सद्भाव । अपने आप में उत्पन्न हुआ जो रागभाव, उसमें रागरूप प्रवृत्ति सो सब ही संसार-भ्रमण की कारण है।
२२-राग सहाव न गलियं-नहु गलिय मिच्छ विषय सल्यं च । यदि राग-भाव न छोड़ा जायगा तो मिथ्यात्व, विषय तथा तीनों शल्य आदि कोई भी दोष दूर न होंगे।
२३-कलरंजन परनइ-कलुस सहावं । शरीर के सुखियापने में प्रसन्न होने वाली जो परिणति सो कलुषभाव रूप है, आनंद-दायक नहीं ।
२४-कललंकृत कम्म तिविह उत्रन्न । शरीर को अलंकृत ( शोभायमान ) करने वाली जो मन वचन काय रूप किया सो तीन प्रकार-(भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकम ) के कमों को उत्पन्न करने वाली है।
२५-ज्ञानोंकुर न लहिय-ज्ञानावरण नरय वीयम्मि । अपने आप में ज्ञान को उत्पन्न न करने से ज्ञानावर्णी कर्म की वृद्धि होकर वह ज्ञानावर्णी कर्म नर्क-बीज हो जाता है।
२६-दर्शनमोहंध-प्रदेव देव च । दर्शनमोहनीय से अंध मनुष्य, नहीं है जिसमें कोई एक भी लक्षण देवत्व (भाप्त) पने का ऐसे अदेव (धातु पाषाण की मूर्ति) को देव मानता है।
२७-देवं अरूव रूवं रूवातीतं च विगत रूवेन । देव तो अरूपी है, रूपातीत है, रूप से परे है । यही कुंदकुंद स्वामी और सभी प्राचार्यों ने कहा है:
___"जिनपद नहीं शरीर को, जिनपद चेतन मांहि"
-अनाचार अज्ञान चरनं आवरन निगोय वासम्मि । यह मानव अज्ञान पूर्वक अनाचार करता हुआ अन्तरात्मा रूपी स्वरूपाचरण चारित्र पर आवरण डाल कर अपनी आत्मा को निगोदवासी बना लेता है।
२६-ज्ञानी ससंक मुक्क, दर्शन मोहंध ससंक रूवं । ज्ञानी पुरुष समस्त प्रकार की शंकाओं से मुक्त रहता है जबकि दर्शनमोहनीय से अन्ध पुरुष सदैव ही समस्त प्रकार की शंकाओं में डूबा रहता है।
. ३०-बोलंति वयन जिनयं, दर्सन्ति आत्म दर्स; इच्छन्ति मुक्तिपन्थ, चेतन्ति चित्तशुद्धम् रुचियन्ति विमल सहावं, परखै-परम सुभावं, लेयं शुद्ध सुभाव, पीयोसि- पीयूषरूव, दिष्टतितिहवन, लख्यन्तु अलख लखिय, अन्मोयं-विज्ञानज्ञानं, जानन्ति-ज्ञानविमलं, कहतु-विमलज्ञान-- ज्ञानं, पोखंतु-ज्ञानविज्ञान, सिद्धन्तु-कम्मखिपन, गमनंच-अगमगमन, सुनियंच-मुक्तिमग्ग, अनु भवति-अरूवरूवं, लीनच-परमतत्व, गहियच-शुद्ध बुद्ध, जोयतु-जोययुक्त, मानंतु-अप्पमान, रचयंति