________________
* तारण-वाणी*
[२७
जिसकी गर्दन में लग जाती, इस पापिन की फांसी । मुक्त नहीं वह नर हो पाता, बनता भव-भव वासी ॥ लोकमूढ़-रतो जेन, देवमूढस्य दिस्टते । पाखंडी मृद संगानि, निगोयं पतितं पुनः ॥२८॥ लोकमूढ़ता का बन जाता, है जो जोव पुजारी । देवमूढ़ता भी आ करती, उसके सिर असवारी ॥ शेष नहीं पास्त्रंडमूढ़ता, भी फिर रह पाती है।
और कि यह त्रय राशि उसे फिर दुर्गति दिखलाती है ।। इस तरह मिथ्यात्व की ( मिथ्यादर्शन की) संगति में पड़ा हुआ यह अज्ञानी प्राणी जो चारों कषायों व तीन मूढ़तामों में फंसा हुआ है, इन्हें छोड़े व संसार, शरीर और पंचेन्द्रिय के जो भोग उन्हें समझे कि यह सब इस आत्मा के कितने शत्र हैं कि जो हमें सम्यक्ती नहीं बनने देते कि जिस सम्यक्त को प्राप्त करके हम मोक्ष जा सकते हैं। और पुण्य को हम भला मान रहे हैं कि पुण्य से हमें स्वर्ग-सुख मिलेंगे। यह भी हमें जान लेना चाहिए कि यदि कदाचिन मान लो हमें स्वर्ग में हीन देव पद मिला तो वहां पर भी झरना का दुःख रहते हुए अंत में भी देव तो क्या इन्द्र को भी मरण समय इतनी वेदना उस झरना की होती है कि जितनी वेदना नर्क में नारकी जीवों को भी नहीं होती। यह बात श्री शुभचन्द्राचार्य ने ज्ञानार्णव पंथ में कहीं है । अतः "ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारण, यह परमामृत जन्म जरा मृतु रोग निवारण" जान कर शास्त्र-स्वाध्याय में रुचि उत्पन्न करो और संसार के स्वरूप को समझो । संसार स्वरूप-संसारे भयदुःखानि, वैराग्यं येन चिंतये ।
अनृतं असत्य जानंते, असरणं दुःख-भाजनं ॥१५॥ यह संसार अगम अटवी है, इसमें भय ही भय है। सुख का इसमें अंश नहीं है, हां दुख है; अक्षय है । जग असत्य, जग जड़, मिध्या जग, जग में शरण नहीं है।
दुख-भाजन जग से विरक्त हो, जग में सार यही है ।। शरीर-असत्यं असास्वतं दिस्टा, संसारे दुःखमीरुहं ।
सरीरं अनित्यं दिस्टा, असुच अमेव परितं ॥१६॥ यह संसार अनित्य, नित्य की इसमें रेख नहीं है। दुख ही दुख, सुख इसमें मिलता हूँढ़े से न कहीं है ।