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* तारण-वाणी
गाथा-मिथ्यातं दुस्टसंगेन, कसायं रमते सदा ।
लोमं क्रोधं मयं मानं, गृहितं अनंत बंधनं ॥२२॥ मिथ्यादर्शन-वैरी की कर, संगति अति दुखदाई । क्रोध, मान, माया व लोभ की, करता जीव कमाई ॥ ये कषाय वे, जिनके कर में, जन्म मरण का थाला । जिसमें नित जलती रहती है, धू-धू विष की ज्वाला ॥ लोमं कृतं असत्यस्या, असास्वतं दिस्टते सदा । अनृतं कृतं आनंद, अधर्म संसार-भाजनं ॥२४॥ लोभी को दिखता है शाश्वत, मेरी है यह काया । शाश्वत कंचन, शाश्वत कामिनि, शाश्वत मेरी माया । वह इस ही मिथ्या प्रवृत्ति में, नित आनन्द मनाता । किन्तु लोभ है मूल पाप का, पाप न इससा भ्राता ।। कोहाग्नि प्रजुलते जीवा, मिथ्यातं घृत-तेलयं । कोहाग्निप्रकोपनं कृत्वा, धर्मरत्नं च दग्धये ॥२५॥ मानव के उर में जलती जब, दुष्ट क्रोध की होली । तेल और घृत बनती उसमें, कुज्ञानों की टोली ।। होता है क्या ? जन्म जन्म से संचित प्राणों प्यारा । धर्मरत्न उस पावक में जल, हो जाता चिर न्यारा ॥ मानं अनृतं गगं, माया विनासी दिस्टते । असास्वतं भाव वृद्धन्ते, अधर्म नरयं पतं ॥२६॥ कैसा मान करे मन मूरख, किसका मान रहा है ? और सोच माया कर किसने, कितना दुःख सहा है ? मान और माया पर यदि तूं, चढ़ता ही जायेगा। तो अधर्म-भाजन बनकर तूं, घोर नई पायेगा । जदि मिथ्या मायादि संपून, लोकमूद रतो सदा। लोकदस्य जीवस्य, संसारे भ्रमनं सदा ॥२७॥ मिथ्या मायादिक में रहता, रत जो मिथ्याचारी । लोकमूढ़ता का बन जाता, है वह परम पुजारी ।।