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* तारण-क्षणी *
यदि ऐसा निर्णय न करे तो वह पात्रता में भी नहीं है अर्थात् वह जीव पात्र ही नहीं । मेरा सहज स्वभाव जानने का है, ऐसा शास्त्र के अवलंबन से ( स्वाध्याय से ) जो निर्णय करता है वह पात्र जोत्र है । जिसे पात्रता प्रगट हुई उसे प्रांतरिक अनुभव अवश्य होगा । सम्यग्दर्शन होने से पूर्व जिज्ञासु जीव-धर्मसंमुख हुआ जीव-सत्समागम में आया हुआ जीव-शास्त्रज्ञान के अवलंबन से, ज्ञान लंबन से ज्ञानस्वभाव आत्मा का निर्णय करता है ।
मैं ज्ञानस्वभाव जानने वाला हूँ, मेरा ज्ञानस्वभाव ऐसा नहीं है कि ज्ञेय में कहीं राग-द्वेष करके अटक जाय; पर पदार्थ चाहे जैसा हो, मैं तो उसका मात्र ज्ञाता हूँ, मेरा ज्ञाता स्वभाव पर का कुछ करने वाला नहीं है, मैं जैसा ज्ञानस्वभाव हूँ उसी प्रकार जगत के सभी आत्मा ज्ञानस्व हैं; वे स्वयं अपने ज्ञानस्वभाव का निर्णय ( करना ) चूक गये हैं इसलिये दुःखी हैं । यदि वे स्वयं निर्णय करें तो उनका दुःख दूर हो। मैं किसी को बदलने में समर्थ नहीं हूँ। मैं पर जीवों का दुःख दूर नहीं कर सकता, क्योंकि उन्होंने दुःख अपनी भूल से किया है, यदि वे अपनी भूल को दूर करें तो उनका दुख दूर हो जाय ।
पहिले शास्त्र का अवलंबन बताया है, उसमें पात्रता हुई है, अर्थात शास्त्रावलंबन से आत्मा का व्यक्त निर्णय हुआ है, तत्पश्चात् प्रगड अनुभव कैसे होता है यह नीचे कहा जा रहा है। इस निर्णय को जगत के सब संज्ञी आत्मा कर सकते हैं। सभी आत्मा परिपूर्ण भगवान ही हैं इसलिये सब अपने ज्ञानस्त्रभाव का निर्णय कर सकने में समर्थ हैं । जो श्रात्महित करना चाहता है उसे वह श्रात्महित हो सकता है, किन्तु अनादिकाल से अपनी चिंता नहीं की है। अरे भाई ! तू कौन वस्तु है, यह जाने बिना तू क्या करेगा ? पहिले इस ज्ञानस्वभाव आत्मा का निर्णय करना चाहिए । इसके निर्णय होने पर अव्यक्त रूप से श्रात्मा का लक्ष हो जाता है; और फिर पर के लक्ष से तथा विकल्प से हटकर स्व का लक्ष पूर्ण स्वरूप की प्रतीति अनुभव रूप से प्रगट करना चाहिए ।
आत्मा की प्रगट प्रसिद्धि के लिये इन्द्रिय और मन से जो पर लक्ष्य जाता है, उसे बदलकर उस मसिज्ञान को निज में एकाग्र करने पर भात्मा का लक्ष होता है अर्थात् आत्मा की प्रगट रूप से प्रसिद्धि होती है। शुद्ध आत्मा का प्रगट रूप अनुभव होना ही सम्यग्दर्शन है और सम्यक दर्शन ही धर्म है ।
धर्म के लिये पहिले क्या करना चाहिये ?
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कई लोग कहते हैं कि यदि आत्मा के सम्बन्ध में कुछ समझ में न आये तो पुण्य शुभ भाव करना चाहिये या नहीं ? इसका उत्तर यह है कि- पहिले आत्मत्य भाव को समझना ही