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* तारण - वाणी
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और वही सच्चा गुरु है। और जो पुण्य से धर्म बताये, शरीर की क्रिया का कर्ता आत्मा को और राग से धर्म बतावे वह कुगुरु कुदेव कुशास्त्र हैं, क्योंकि वे यथावत् वस्तुस्वरूप के ज्ञाता नहीं हैं, प्रत्युत उल्टा स्वरूप बतलाते हैं, वे कोई देव, गुरु या शास्त्र सच्चे नहीं हैं।
भुतज्ञान के अवलम्बन का फल आत्मानुभव
'मैं आत्मा ज्ञायक हूँ' पुण्य पाप की प्रवृत्तियों मेरी ज्ञेय हैं, वे मेरे ज्ञान से पृथक् हैं, इस प्रकार पहिले विकल्प के द्वारा देव- गुरु शास्त्र के अवलम्बन से यथार्थ निर्णय करना चाहिये । यह तो अभी ज्ञानस्वभाव का अनुभव नहीं हुआ उससे पहिले की बात है। जिसने स्वभाव के लक्ष से अर्थात् अपनी आत्मा के स्वरूप जानने के विचार से शास्त्र का अवलम्बन किया है वह अल्पकाल में श्रात्मानुभव अवश्य करेगा। प्रथम विकल्प में जिसने यह निश्चय किया कि मैं पर से भिन्न हूँ, पुण्य पाप भी मेरा स्वरूप नहीं है, मेरे शुद्ध स्वभाव के आश्रय से ही लाभ है, देव गुरु शास्त्र का भी अवलम्बन परमार्थ से नहीं है, मैं तो स्वाधीन ज्ञानस्वभाव हूँ; इस प्रकार निर्णय करने वाले को अनुभव हुए बिना नहीं रहेगा ।
पुण्य-पाप मेरा स्वरूप नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ - इस प्रकार जिसने निर्णय के द्वारा स्वीकार किया है उसका परिणमन पुण्य-पाप की ओर से पीछे हटकर ज्ञायक स्वभाव की ओर ढल गया है अर्थात् उसे पुण्य पाप का श्रादर नहीं रहा, उसमें फलाशक्ति नहीं रही, इसलिये वह अल्पकाल में ही पुण्य-पापरहित स्वभाव का निर्णय करके और उसकी ( अपने आत्मस्वभाव की ) स्थिरता करके बीतराग होकर पूर्ण हो जायगा । यहाँ पूर्ण की बात है, प्रारम्भ और पूर्णता के बीच कोई भेद ही नहीं किया, क्योंकि जो प्रारंभ हुआ है सो वह पूर्णता को लक्ष में लेकर ही हुआ है। सत्य को सुनाने वाले और सुनने वाले दोनों की पूर्णता ही है। जो पूर्ण स्वभाव की बात करते हैं वे देव- गुरु और शास्त्र, तीनों पवित्र ही हैं। उनके अवलंबन से जिसने हाँ कही है वह भी पूर्ण पवित्र हुए बिना नहीं रह सकता । जो पूर्ण की हों कहकर आया है, तत्पर हुआ है वह पूर्ण होगा ही, इस प्रकार उपादान - निमित्त की संधि साथ ही है ।
सम्यग्दर्शन होने से पूर्व —
आत्मानन्द प्रगट करने के लिए पात्रता का स्वरूप क्या है ? तुझे तो धर्म करना है न ? तो तू अपने को पहिचान । सर्व प्रथम सच्चा निर्णय करने की बात है। अरे, तू है कौन ? क्या क्षणिक पुण्य-पाप का करने वाला तू ही है ? नहीं, नहीं। तू तो ज्ञान का करने वाला ज्ञानस्वभाव है । तू पर को ग्रहण करने वाला या छोड़ने वाला नहीं है, तू तो केवल जानने वाला ही है। ऐसा निर्णय ही धर्म के प्रारम्भ का ( सम्यग्दर्शन का ) उपाय । प्रारम्भ में अर्थात् सम्यग्दर्शन से पूर्व