________________
१९४]
• तारण-वाणी
पर से हटकर आत्महित करने की जिज्ञासा हुई है ऐसे जिज्ञासु जीव की यह बात है। पर द्रव्य के प्रति सुख बुद्धि और रुचि को दूर की; वह पात्रता है। भोर स्वभाव की रुचि तथा पहिचान होना सो पात्रता का फल है।
दुख का मूल अपनी ही भूल है। जिसने अपनी भूल से दुःस्व उत्पन्न किया है वह अपनी भूल को दूर करे तो उसका दुःख दूर हो। अन्य किसी ने भूल नहीं कराई, इसलिये दूसका कोई अपना दु:ख दूर करने में समर्थ नहीं है।
कुछ लोग वीतराग धर्म का लौकिक वादों के साथ समन्वय करते हैं। जैसे वीतराग भगवान को राजा की उपमा देकर अष्ट द्रव्य या लवंगादि लेकर मंदिर में जाना और यह कहना कि जिस तरह राजा के सामने भेंट ले जाना पड़ती है वैसे ही भगवान के सामने भेंट ले जानी चाहिए । यह विपर्यय है।
श्रुतज्ञान ( शाखज्ञान ) का अवलम्बन ही पहिली क्रिया हैजो आत्मकल्याण करने को तैयार हुआ है ऐसे जिज्ञासु को पहिले क्या करना चाहिये, यह बतलाया जाता है। आत्मकल्याण कहीं अपने आप नहीं हो जाता, किन्तु वह अपने ज्ञान में रुचि और पुरुषार्थ से होता है। अपना कल्याण करने के लिये पहिले अपने ज्ञान में यह निर्णय करना होगा कि जिन्हें पूर्ण कल्याण प्रगट हुआ है वे कौन हैं और वे क्या कहते हैं । तथा उन्होंने पहिले क्या किया था । अर्थात् सर्वज्ञ का स्वरूप जानकर उनके द्वारा कहे गये श्रुतज्ञान के (शास्त्र ज्ञान के ) अवलम्बन से प्रात्मा का निर्णय करना चाहिये, यही प्रथम कर्तव्य है। किसी पर के अव. लम्बन से धर्म प्रगट नहीं होता, फिर भी जब स्वयं अपने पुरुषार्थ से समझता है तब सम्मुख निमित्त रूप से सच्चे देव गुरु ही होते हैं।
इस प्रकार प्रथम ही यह निर्णय हुआ कि कोई पूर्ण पुरुष सम्पूर्ण सुखी है और सम्पूर्ण ज्ञाना है, वही पुरुष पूर्ण सुख का पूर्ण सत्यमार्ग कह सकता है, स्वयं उसे समझकर अपना पूर्ण सुख प्रगट कर सकता है और स्वयं जब समझता है तब सच्चे देव गुरु शास्त्र ही निमित्त रूप होते हैं । जिसे धन स्त्री पुत्रादि की अर्थात् संसार की व संसार के निमित्तों की तीव्र रुचि होगी उसे धर्म के निमित्त-भूत देव शास्त्र गुरु के प्रति रुचि नहीं होगी अर्थात् उसे शास्त्रज्ञान (श्रुतज्ञान ) का अवलम्बन नहीं रहेगा और श्रुतज्ञान के अवलम्बन के बिना प्रात्मा का निर्णय नहीं होगा। क्योंकि आत्मा के निर्णय में सत् निमित्त हो होते हैं, कुगुरु कुदेव कुशाल इत्यादि कोई भी प्रात्मा के निर्णय में निमित्तरूप नहीं हो सकते। जो कुदेवादि को मानता है उसे तो भात्मनिर्णय हो ही नहीं सकता।
जिज्ञासु की यह मान्यता तो हो ही नहीं सकती कि दूसरे की सेवा करेंगे तो धर्म होगा,