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* तारण - वाणी *
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आत्मा को जाने बिना आत्मस्वभाव की वृद्धिरूप प्रभावना कैसे की जा सकती है ? को स्वतंत्र, स्वाधीन और परिपूर्ण स्थापित करता है ।
जैन शासन तो
वस्तु
भगवान ने अथवा अनंत केवलियों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता के बल से अपना विकास किया और तुम्हें तुम्हारी स्वतंत्र सत्ता बनाई ।
भगवान ने तो आत्मा के स्वभाव को पहिचान कर ज्ञाता मात्र भाव की श्रद्धा और एकाता द्वारा काय भाव से अपने आत्मा को बचाने की बात कही है; और यही सच्ची दया है 1 आत्मा का निर्णय किये बिना जीव क्या ( कल्याण ) कर सकता है ? भगवान के ज्ञान में तो यह कहा है कि तू स्वतः परिपूर्ण है, प्रत्येक तत्त्व, स्वतः स्वतंत्र हैं किसी त को दूसरे तत्र का आश्रय नहीं है । इस प्रकार वस्तुस्वरूप को पृथक् स्वतन्त्र जानना सो अहिंसा है और वस्तु को पराधीन मानना कि एक दूसरे का कुछ कर सकता है तथा राग से धर्म मानना ( शुभ राग से धर्म मानन! ) सी हिंसा है। पुण्य बंध भी आत्मा को स्वगीदि उत्तम गतियों में बांधता है, किन्तु मोक्षमार्ग में बाधक होने की अपेक्षा ज्ञान की दृष्टि से हिंसा कही । जगत के जीवों की सुख चाहिये और सुख का इनाम धर्म है। धर्म करना है अर्थात आत्मशांति चाहिये है अथवा अच्छा करना है। और वह अच्छा कहां करना है यह ध्यान रहना चाहिए ।
आत्मा की अवस्था में दुःख का नाश कर के नरागी आनन्द प्रगट करना है । वह आनंद ऐसा चाहिए कि जो स्वाधीन हो, जिसके लिये पर का अवलंबन न हो। ऐसा न करने की जिसकी स्वार्थ भावना हो सो वह जिज्ञासु कला है।
अपना पूगानन्द प्रवट करने की भावना यात्रा विलासु पहिले यह देखता है कि ऐसा नन्दकिसे प्रगट हुआ है ? अपने को अभी ऐसा आनन्द प्रगट नहीं हुआ है और जिन्हें ह आनन्द प्रगट हुआ है उनके निमित्त से स्वयं उसे अन्य को प्रगट करने की माने जाने ले । और ऐसा जानले सो उसमें मध्ये निमित्तों की हिगान भी था गई। जब तक इनक है तब तक वह जिज्ञासु है ।
अपना में (आत्मा में ) अधम- शनि है, उसे दूर करके धर्म-शांति प्रगट करना
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है । वह शांति-धर्म अपने आवार से और परिपूर्ण होनी चाहिये। जिसे ऐसी जिज्ञासा होती है वह पहिले यह निश्चय करता है कि मैं एक मीना परिपूर्ण सुख प्रगट करना चाहता हूँ । तो वैसा परिपूर्ण सुख किसी और के प्रगट हुआ होना चाहिए। यदि परिपूर्ण सुख - आनन्द प्रगट न हो तो दुख कहलाये | जिसे परिपूर्ण और स्वाधीन आनन्द प्रगट होता है वह सम्पूर्ण मुखी है; और ऐसे सर्वज्ञ वीतराग हैं। इस प्रकार जिज्ञासु अपने ज्ञान में सर्वज्ञ का निर्णय करता है। जिसे