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* तारण-वाणी
[१७९ करने योग्य हैं। इनका भली भांति अनुभव ज्ञान हो जाना नितान्त आवश्यक है। इसी को हेय, ज्ञेय और उपादेय का ज्ञान कहते हैं।
वास्तव में सुख और दुःख नाम की कोई चीज है ही नहीं, अपने सम्यक्तभाव में सुख और मिथ्यात्व भाव में ही दुख है क्योंकि सम्यक्त स्वयं सुखरूप है और मिथ्यात्व भाव स्वयं दुःखरूप है।
मिथ्यात्व और शुभाशुभ रागादि भाव प्रगट रूप से दुःख के देने वाले हैं, किन्तु अज्ञानी मनुष्य न जाने क्यों इनमें हो मिठास मानकर आत्म-सुख से वंचित हो रहा है ! ___जड़ से कटे हुये वृक्ष के हरे पत्ते सूखने वाले ही हैं, इसी तरह मिथ्यात्व रूपी वृक्ष कट जाने पर कर्मरूपी पत्ते नियम से सूखकर झड़ ही जाते हैं ।
__ योग में शुभ या अशुभ ऐसा भेद नहीं, किन्तु अंतरंग चारित्र गुण की पर्याय में उपयोग तदनुरूप परिणमन कर लेता है। प्रात्म-भावना शुद्ध परिणति रूप हो तो शुद्धोपयोग, शुभ परिणति रूप हो तो शुभोपयोग और अशुभ परिणति रूप हो तो अशुभोपयोग कहा जाने लगता है ।
शुद्धोपयोग, निर्विकल्प आनन्द रूप है और परमानन्द की ओर अग्रसर करने वाला है, कर्म निर्जरा को करने वाला यही है। शुभोपयोग सविकल्प है और केवल सुखाभास ही कराना है। जबकि अशुभोपयोग केवल खेद और आकुलता जनक ही है ।
कहा गया है कि शुद्धोपयोग अपूर्वकरण नामक आठवें गुण में प्रगट होता है यह ठीक है फिर भी इसकी झलक चौथे गुणस्थानवर्ती अत्रत सम्यग्दृष्टि को होने लग जाती है। यही झलक तो उसे 'सानन्द वीतराग निर्विकल्प समाधि' की ओर अग्रसर करती है।
शुद्धोपयोग आत्माश्रित होता है, क्योंकि यह आत्मा का निज स्वभाव रूप है। शुभ और अशुभोपयोग पर पदार्थों के आश्रय से होता है, क्योंकि यह दोनों विकारी भाव है, इसीलिये कमबंध के कारण हैं, जबकि शुद्धोपयोग कर्म निर्जरा करने वाला है।
शुभोपयोग और अशुभोपयोग करते हुये तो इस आत्मा को अनादिकाल बीत गया किन्तु एक शुद्धोपयोग के नहीं कर सकने के कारण से संसारभ्रमण हो करती रही। और फिर भी इस मनुष्य जन्म, श्रावक कुल को पाकर शुद्धोपयोग न कर सके तो आगे भी अनन्तकाल भटकती ही रहेगी।
प्रश्न-आत्मा के पराधीन करने में पुण्य और पाप दोनों ही समान कारण हैं-सोने की बेड़ी और लोहे की बेड़ी की तरह पुण्य और पाप दोनों ही आत्मा की स्वतंत्रता का अभाव करने में समान हैं, तो फिर उसमें शुभ और अशुभ ऐसे दो भेद क्यों ?
उत्तर-उनके कारण से मिलने वाली इष्ट-अनिष्ट गति, जाति इत्यादि की रचना के भेद का ज्ञान कराने के लिये उसमें भेद कहे हैं-अर्थात् संसार की अपेक्षा से भेद है, धर्म की अपेक्षा