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* तारण-वाणी *
श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने जो व्यवहार में सोने और निश्चय में जागने को कहा है इसका यह अर्थ नहीं जानना कि व्यवहार छोड़ देने को कहा है। हां, व्यवहार में मध्यस्थता और निश्चय में सतर्कता की वृत्ति और बुद्धि रखनी चाहिये । यही आशय श्री कुन्दकुन्द, तारणस्वामी और सभी आचार्यों का जानकर तदनुसार प्रवृत्ति करना हो सम्यक् मार्ग है ।
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तों का वर्णन करके उसका आ के वन का समावेश हो जाता है ।
मोक्षशास्त्र ( तत्वार्थ सूत्र ) के सातवें अध्याय में शुभास्रत्र का वर्णन किया है। उसमें बारह के कारण में समावेश किया है। इस अध्याय में श्रावकाचार ( कानजी स्वामी )
श्राचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने इस शास्त्र का प्रारम्भ करते हुये पहले ही सूत्र में यह कहा कि 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ही मोक्षमार्ग है।' उसमें गर्भित रूप से यह भी आ गया कि इससे विरुद्ध भाव अर्थात शुभाशुभ भाव मोक्षमार्ग नहीं है, किन्तु संसार-मार्ग है । इस प्रकार इस सूत्र में जो विषय गर्भित रखा था वह विषय आचार्य देव ने इन छट्टो सातवें अध्यायों में स्पष्ट किया है। छ अध्याय में कहा है कि शुभाशुभ दोनों भाव भाव है और इस विषय को अधिक स्पष्ट करने के लिये इस सातवें अध्याय में मुख्यरूप से शुभास्त्रव का अलग वर्णन किया है ।
पहले अध्याय के चौथे सूत्र में जो सात तत्त्र कहे हैं उनमें से जगत के जीव अत्र तत्व की जानकारी के कारण ऐसा मानते हैं कि 'पुण्य से धर्म होता है'। कितने ही लोग शुभयोग को संबर मानते हैं तथा कितने ही ऐसा मानते हैं कि अणुव्रत महात्रत मैत्री इत्यादि भावना, तथा करुणाबुद्धि इत्यादि से धर्म होता है अथवा वह धर्म का ( संवर का ) कारण होता है, किन्तु यह मान्यता अज्ञान से भरी हुई है | ये अज्ञान दूर करने के लिये खास रूप से यह एक अध्याय अलग बनाया है और उसमें इस विषय को स्पष्ट किया है।
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इस अध्याय में बतलाया है कि सम्यग्दृष्टि जीव के होने वाले व्रत, दया, दान, करुणा, मैत्री इत्यादि भाव भी शुभास्रव हैं और इसलिये वे बंध के कारण हैं तो फिर मिध्यादृष्टि जीव के ( जिसके यथार्थ व्रत हो ही नहीं सकते ) उसके शुभ धर्म संवर या उसका कारण किस तरह हो सकता है ? कभी हो हो नहीं सकता । अज्ञानी का शुभभाव तो अशुभ भाव का ( पाप का ) परम्परा कारण कहा जाता है । इतनी भूमिका लक्ष में रखकर इस अध्याय के सूत्रों में रहे हुये भाव बराबर समझने से वस्तुस्वरूप की भूल दूर हो जाती है । ( मोक्षशास्त्र कानजी स्वामी )
उपरोक्त कथन का सारांश यह है कि - पुण्य और धर्म ये दोनों एक ही नहीं हैं । पुण्य संसार - सुख का कारण । पुण्य से मोक्ष नहीं होता जब कि धर्म से मोक्ष की प्राप्ति होती है । नहीं जानने वाले पुण्य से ही धीरे-धीरे मोक्ष हो जायगा ऐसा ही मानते हैं । उनके इस अज्ञान को दूर करने के लिये आचार्य श्री ने सातवें अध्याय का वर्णन विशद रूप से किया है ।