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• तारण-वाणी*
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मानता हूँ कि जो पराश्रित व्यवहार है वह सारा छुड़वाया है। तो सत्पुरुष एक निश्चय को ही भली भांति निश्चय रूपसे अंगीकार करके शुद्ध ज्ञानघनरूप अपनी आत्म-महिमा में स्थिति क्यों नहीं करते ?
'भावार्थ-यहाँ व्यवहार का त्याग कराया है, इसलिये निश्चय को अंगीकार करके निज महिमा रूप प्रवर्तन युक्त है । अष्टपाहुड़ में मोक्षपाहुड की ३१ वी गाथा में कहा है कि
जो व्यवहार में सोते हैं वे योगी अपने कार्य में जागते हैं; तथा जो व्यवहार में जागते हैं वं अपने कार्य में सोते हैं, इसलिये व्यवहारनय का श्रद्धान छोड़ कर निश्चयनय का श्रद्धान करना योग्य है।
___ व्यवहार नय म्वद्रव्य-परद्रव्य को तथा उसके भावों को तथा कारण-कार्यादि को किसी के किसी में मिलाकर निरूपण करता है इसलिये ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व है, इसलिये उसका त्याग करना चाहिये । और निश्चयनय उसी को यथावत् निरूपण करना है तथा किसी को किसी में नहीं मिलाता, इसलिये ऐसे ही श्रद्धान से 'सम्यक्त्व' होता है, इसलिये उसी का (निश्चयनय का ) श्रद्धान करना चाहिये। (मोक्षशास्त्र कानजी स्वामी )
प्रश्न-अगर ऐसा है तो क्या कारण है कि जिनमार्ग में दोनों नयों को ग्रहण करना कहा है ?
उत्तर-जिनमार्ग में किसी स्थान पर तो निश्चयनय को मुख्यता सहित व्याख्यान है; उसे तो "सत्यार्थ ऐसा ही है" ऐसा जानना; तथा किसी स्थान पर व्यवहारनय की मुख्यता सहित ब्याख्यान है उसे "ऐसा नहीं है किन्तु निमित्तादि को अपेक्षा से यह उपचार किया है" ऐसा जानना चाहिये और इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है। किन्तु दोनों नयों के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर "इस प्रकार भी है और इस प्रकार भी है" ऐसे भ्रमरूप प्रवर्तन से दोनों नयों का ग्रहण करना नहीं कहा है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय ७ निश्चयव्यवहार नयाभाषावलम्बी मिथ्यादृष्टियों के निरूपण में उपरोक्त कथन भलीभांति से स्पष्ट किया है । )
इन्हीं सब विचारों से श्री तारण स्वामी ने अपने द्वारा रचित 'अध्यात्म वाणी' ग्रन्थ में निश्चयनय की मुख्यता बताकर समस्त व्यवहार करने का कथन इस उत्तम ढंग से किया है कि जो भी व्यवहार करो उसमें पात्मज्ञान का आधार होना चाहिये; बिना आत्म ज्ञान के किया हुआ समस्त व्यवहार मिथ्या व्यवहार है, क्रियायें मिथ्या क्रियायें हैं । जबकि प्रात्म-ज्ञानपूर्वक किये गये समस्त व्यवहार सम्यक् व्यवहार हैं, क्रियायें सम्यक् क्रियायें हैं। ऐसा नहीं कहा कि सब व्यवहार छोड़ दो
और निश्चयामाषी ( मिथ्यादृष्टि ) बन जाभो । क्योंकि व्यवहार तो केवलज्ञानी होने के पहले तक मुनियों के साथ भी रहता है और उसका रहना भी अनिवार्य है। तब व्यवहार छोड़ देने की बात भी तारण स्वामी या कोई भी भाचार्य कैसे कह सकते हैं ?