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* तारण - वाणी *
[१५५ जबकि मिध्यादृष्टि जीव यथार्थ विचार नहीं करता। हां, बचनों से भले ही बड़ी बड़ी बातें वैराग्य की करता है, किन्तु इस तरह की कपट छल की बातों से कोई कल्याण नहीं होता ।
सच्चे ज्ञानपूर्वक वैराग्य ही सच्चा वैराग्य है । आत्मा के स्वभाव को जाने विना यथार्थ वैराग्य नहीं होता । आत्मज्ञान के बिना मात्र जगत और शरीर की क्षणिकता के लक्ष्य से हुआ वैराग्य अनित्य जागृति है । इस भाव में धर्म नहीं है । धर्म तो आत्मज्ञान के प्रकाश में है ।
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आत्मा के शुद्धोपयोग रूप परिणाम को घातने वाला भाव ही सम्पूर्ण हिसा है, अत: अपने व पर के शुद्धोपयोग को घात करने वाली कोई भी क्रिया मन, वचन, काय की भूलकर भी न करनी चाहिये ।
राग-द्वेष मोहादि भावों की उत्पत्ति सो हिंसा है और नहीं होना सो ही अहिंसा है । यह जैनधर्म का रहस्यपूर्ण सिद्धांत है । सम्यग्दर्शन पूर्वक अभ्यास से परमार्थ सत्य कथन की पहिचान हो सकती है और उसके विशेष अभ्यास से सहज उपयोग ( श्रात्म-उपयोग ) रहा करता है । सहज उपयोग-मानी श्रात्म - उपयोग या सहजानन्द |
उज्वल वचन, विनय वचन और प्रिय वचन रूप भाषावर्गणा समस्त लोक में भरी हुई हैं, उसकी कुछ न्यूनता नहीं, कुछ कीमत देनी नहीं पड़ती, और फिर मीठे कोमल रूप वचन बोलने से जीभ नहीं दुखती, शरीर में कट नहीं होता, ऐसा समझ कर असत्य वचन को दुःख का मूल जानकर असत्य का त्याग और सत्य तथा हित, मित और प्रिय वचन की प्रवृत्ति करनी चाहिए।
खाज खुजाने के सुग्वाभास में जिस तरह दुःख का ही भोग करना पड़ता है ठीक यही दशा इन्द्रियजनित सुखाभास की है, किन्तु फिर भी न जाने क्यों अज्ञानी - मोहो विषय लम्पटी जोब भोगों में प्रियता मानकर दोनों भवों का नाश करते हैं ।
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निराकुलता ही सच्चा सुख है। बिना सम्यग्दर्शन ज्ञान के वह सुख नहीं हो सकता । धन-संचय तथा कुटुम्ब-वृद्धि में कल्पना का रंचमात्र सुख और आकुलता का अपार दु:ख सहन करना पड़ता है 1
जो मुनि (द्रव्यलिंगी) जिनप्रणीत तन्त्रों को मानता है फिर भी वह मिध्यादृष्टि है । वह शरीरादि क्रियाकांड को अपना मानता है, अत्रत्र बन्ध रूप शील संगमादि परिणामों को वह संवर निर्जरा रूप मानता है । और यद्यपि वह पाप से विरक्त होता है परन्तु पुण्य में उपादेय बुद्धि रखता है, इसलिये उसे तन्त्रार्थ की यथार्थ श्रद्धा नहीं; अतः वह मिध्यादृष्टि है । 'द्रव्यलिंगी मुनि की भांति द्रव्यलिंगी श्रावक भी मिध्यादृष्टि होता है ।
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