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* तारण-वाणी - केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव का अपर्णवाद करना सो दर्शन मोहनीय कर्म के आश्रव के कारण हैं । (मो० अ० ६.१३)
चतुर्थ गुणस्थान-(सम्यग्दर्शन ) साथ में ले जाने वाला आत्मा पुरुष--पर्याय में ही जन्मता है, स्त्री या नपुंसक में कभी भी पैदा नहीं होता।
ऐसा मानना कि केवली तीर्थंकर भगवान ने ऐसा उपदेश किया है कि 'शुभराग से धर्म होता है, शुभ व्यवहार करते करते निश्चय धर्म होता है' सो यह उनका अवर्णवाद है ।।
भगवान ने शुभभाव के द्वारा धर्म होता है' यह जानकर शुभ भाव किये थे । भगवान ने तो दूसरों का भला करने में अपना जीवन ही अर्पण कर दिया था' इत्यादि रूप से भगवान की जोवन- कथा लिखना सो अपने शुद्ध म्वरूप का और उपचार से अनंत केवलो भगवानों का अवर्णवाद है । (मोक्षशास्त्र कानजी स्वामी, पृष्ठ ५३२)
जब इतनी बारीक बारीक बातों को शिद्धांतविरुद्ध लिखने पर केवली--अवर्णवाद और श्रुत-अवर्णवाद का दोष लगकर दर्शनमोहनीय कर्म का आवरण--आश्रव होता है जो होना ही चाहिये, तब उनके नाम पर अथवा उनके द्वारा कही गई कह कर मनमानी सिद्धांतविरुद्ध क्रियायें करने और रागरंजित कुकथायें कथा--पुराण ग्रंथों में लिग्वने तथा मानने वालों को कितना अवर्णवाद--जनित दोष लगता होगा इस पर भी विचार हमें अवश्य ही करना चाहिये । क्योंकि दूसरों के घर की भूल से दूसरों की ही हानि होती है, अपनी कोई हानि नहीं होती । जबकि अपने घर की भूल से अपनी हानि नियम से होती है। अतएव हमें दूसरों की भूल बताने के पहले अपनी भूल को दूर कर देना चाहिये, तभी हमारा कल्याण होगा ।
दूसरों की भूल कहने का प्रयोजन ही यह होना चाहिये कि यह भूल हममें तो नहीं है और यदि है तो न रहनी चाहिये । ___ पांच प्रकार के अवर्णवाद दर्शन मोहनीय के श्राश्रव के कारण हैं और जो दर्शनमोह है सो अनंत संसार का कारण है।
शुभ विकल्प से धर्म होता है, ऐसी मान्यता रूप अग्रहीत मिथ्यात्व तो जीव के अनादि से चला आया है । मनुष्यगति में जीव जिस कुल में जन्म लेता है उस कुल में अधिकतर किसी न किसी प्रकार से धर्म की मान्यता होती है । और उस कुल--धर्म में किसी को देवरूप से, किसी को गुरू रूप से, और किसी ग्रंथ--पुस्तक को शास्त्र रूप से तथा किसी क्रिया को धर्म रूप से माना जाता है । जीव को बचपन में इस मान्यता का पोषण मिलता है। ऐसी परिस्थिति के