________________
* तारण-वाणी*
[१४१ • भगवान महावीर ने जगत के जीवों के प्रति दुःख से मुक्त करने वाली करुणाबुद्धि से और मंसार को असार जानकर प्रात्मकल्याण करने वाली वैराग्य--भावना से ३० वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली थी। करुणाबुद्धि से उस समय की प्रचलित याज्ञिक हिंसा को बन्द कराने का प्रयत्न करते हुये फिर भी वे लक्ष्यबिन्दु यही रखते थे कि कब हम अपने आत्म-पुरुषार्थ के द्वारा इस शुभ गग से मुक्त होकर कैवल्य दशा को प्राप्त हों। इस पुरुषार्थ की सफलता पाने में आपको बारह वर्ष लगे और अन्त में ब्यालीस वर्ष की आयु में केवलज्ञान को प्राप्त किया तथा तीस वर्ष केवलज्ञानी बने रहकर जग-जीवों का कल्याण करके बहत्तर वर्ष की आयु में मोक्षधाम सिधारे ।
__ मोक्षप्राप्ति के लिये जो भगवान महावीर ने किया, वही सब कुछ हमें करना होगा तथा और भी जो अनन्त जीव मोक्ष गये उन्हें जो कुछ करना पड़ा था वही सब कुछ भगवान महावीर को करना पड़ा, तब ही मोक्ष जा सके । अर्थात् शुभाशुभ राग से छूटने का श्रात्म-पुरुषार्थ उन्हें भी करना पड़ा था और हमें भी करना पड़ेगा । कुटुम्ब, धन, शरीरादि के राग को अशुभ राग और भगवान से करने वाले राग को शुभ राग कहते हैं।
जो शास्त्र न्याय की कसौटी-सम्यग्ज्ञान के द्वारा परीक्षा करने पर प्रयोजनभूत बातों में सच्चा -यथार्थ मालूम पड़े उसे ही सत्शास्त्र मानना चाहिये। किसी ग्रन्थ के कना के रूप में तीर्थकर भगवान का, केवली का, गणधर का या आचार्य का नाम दिया हो इसी लिए उसे सच्चा ही शास्त्र मान लेना सो न्यायसंगत नहीं है । मुमुक्षु जीवों को तत्त्वदृष्टि से परीक्षा करके सत्य-असत्य का निर्णय करना चाहिये । भगवान के नाम से किसी ने कलित शास्त्र बनाया हो उसे सत् शास्त्र मान लेना सो सतशास्त्र का अवर्णवाद है। इस लिए सत्यासत्य की परीक्षा कर असत्य की मान्यता छोड़ना चाहिये । क्योंकि असत् शास्त्र जीव का महान् अहित करते हैं ।
__ ऋद्धिप्राप्त=ऋषि, अवधि--मन:पर्ययी=मुनि, इद्रियजित यति, और सर्वसाधारण साधु सो अनगार कहे जाते हैं । ( साधु संघ चार प्रकार का इस तरह कहा गया है) तथा मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविकायें, यह भी चार संघ कहा गया है । पात्रदान में इन सबका स्थान है।
दुखित को देना-करुणादान, प्रीतिभोज-समदत्तिदान, सुपात्र को देना-पात्रदान और सर्वत्याग को सर्वदत्तिदान कहते हैं।
जो अात्मस्वभाव के स्वाश्रय से शुद्ध परिणमन है सो धर्म है। सम्यग्दर्शन प्रगट होने पर यह धर्म प्रारंभ होता है। शरीर की क्रिया से धर्म नहीं होता, पुण्य विकार है अत: उससे धर्म नहीं होता तथा वह धर्म में सहायक नहीं होता । ऐसा धर्म का स्वरूप है । इससे विपरीत मानना सो धर्म का अवर्णवाद है । (मोक्षशास्त्र कानजी स्वामी)