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* तारण-वाणी.
मोक्ष-शास्त्र (व्याख्याता श्री कानजी स्वामी के आधार पर) भगवान महावीर स्वामी की और गौतम गणधर की जय ! कार्तिक वदी अमावस्या का वही दिन कि प्रातःकाल में भगवान महावीर मोक्ष सिधारे और सार्यकाल में श्री गौतमगणधर को केवलज्ञान की जाग्रति हुई । ऐसा स्वर्णयोग क्यों मिला ?
भगवान के मोक्ष सिधारने से श्री गौतमगणधर को वियोगजनित कुछ शोक हुआ, क्योंकि भगवान महावीर के प्रति आपका शुभ राग था। राग दुःख का कारण होता ही है, जो आपको भी हुआ । कड़बी चोज सब को ही कड़वी लगेगो, चाहे गृहस्थ हो या मुनि । भले ही आप चार ज्ञान के धारी थे फिर भी छठवें गुणस्थान में चार संज्वलन और नो नो कषायों का सद्भाव तो रहता ही है। अत: शोक-कषाय उनके साथ भी अपना काम कर गई । किन्तु जब आपने उस कषायजनित कड़ापन का विचार किया, उसे हेय समझा और आत्म-बल के प्रयोग द्वारा चितवन करने लगे कि अरे ! हम नाहक शोक क्योंकर रहे हैं, कौन किसके साथ आता है और कौन किसके साथ जाता है । इस तरह के अनेक विचार बल के द्वारा भगवान के प्रति जो राग भावना थी उसे अपने हृदय से दूर करने का पुरुषार्थ करने लगे। राग को दूर करने के पुरुषार्थ में सफल होते ही आपको केवलज्ञान की जाग्रति हो गई। यदि कदाचित उस राग को कड़वाहट का आप अनुभव न करते और शुभ राग में मिठास मान कर जो वियोगजनित शोक उत्पन्न हुआ था वही बना रहता तो आप केवलज्ञान से वश्चित रह जाते ।
यह राग भाग दहे सदा, तातें समामृत सेइये ।
चिर भजे विषय कषाय, अब तो त्याग निज पद वेइये ॥ बस, आपने राग (भले ही वह भगवान से था, तो क्या) छोड़ कर 'निज पद जो आत्मा' उसका अवलोकन किया और केवल ज्ञान सूर्य का प्रकाश पा लिया।
"मार्ग सब का एक यही है कि शुभाशुभ राग को छोड़ने पर ही मोक्षमार्ग बनता है। मोक्ष का माग मुनि पद से ही नहीं, उसे तो श्रावक पद से ही प्रारम्भ करना पड़ता है । मोक्षमार्ग की प्रथम भूमिका श्रावक अवस्था ही है, मुनि पद उगा हुआ वृक्ष है और उसमें लगा हुमा फल-मोक्ष है।"