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* तारण-वाणी.
[१३७ अर्थ-हे भव्य जीव हो ! तुम या देह विर्षे जो तिष्ठया ऐसा जो पात्मा ताहि जानों । कैसा है-लोक में नमने योग्य इन्द्रादिक हैं तिनिकरि तो नमने योग्य पर ध्यावने योग्य है, बहुरि जे तीर्थकर स्तुति करने योग्य तिनकै हू स्तुति करने योग्य है, ऐसे आत्मा कू जो कि देह विर्षे तिष्ठे है ताकू यथार्थ जानों।
__ अर्हन्तः सिद्धा आचार्या उपाध्यायाः साधवः पंचपरमेष्ठिनः ।
तेऽपि हु तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा हु मे शरणम् ॥१०॥ अर्थ-पंचपरमेष्ठी हैं ते भी आत्मा विर्षे ही चेष्टा रूप हैं प्रात्मा की अवस्था है तातै मेरे आत्मा ही का शरण है, ऐसे यह अन्तमंगल किया है।
सम्यक्त्वं सज्ज्ञानं सच्चारित्रं सत्तपश्चैव ।
चत्वारः तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा हु मे शरणम् ॥१०५॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र पर सम्यक् तप, ये चार प्रारधना है ते भी आत्मा विर्षे ही चेष्टारूप हैं, ये चारों आत्मा ही की अवस्था हैं, ता” आचार्य कहें हैं मेरै आत्मा ही का शरण है।
एवं जिनप्रज्ञप्तं मोक्षस्य च प्राभृतं सुमक्त्या ।
यः पठति शृणोति भावयति स प्राप्नोति शास्त्रतं सौख्यम् ॥१०६॥ अर्थ-एवं कहिये ऐसे पूर्वोक्त प्रकार जिनदेव नैं कहा ऐसा मोक्षपाहुड ग्रन्थ है ताहि जो जीव भक्ति भाव करि पढ़े है याको बारंवार चिन्तवन रूप भावना करे है तथा सुने है सो जीव शाश्वता सुख जो नित्य अतीन्द्रिय ज्ञानानंदमय सुख ताहि पावै है ।
__ भावार्थ-मोक्षपाहुड में मोक्ष अर मोक्ष का कारण स्वरूप कहा है अर जे मोक्ष का कारण स्वरूप अन्य प्रकार मानें हैं, तिनिका निषेध किया है।
ऐसें श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने यह मोक्षपाहुड गाथा १०६ (जिसमें से यह २८ गाथायें लिखीं ) में सम्पूर्ण किया याका संक्षेप ऐसा जानना:
जो यह जीव शुद्ध दर्शन ज्ञानमयी चेतनास्वरुप है तोऊ भन्मदि में ही पुद्गल कर्म के संयोग ते प्रज्ञान मिथ्यात्व राग द्वेषादिक विभाव रूप परिणम है ता” नवीन कर्म बंध के संतान करि संसार में भ्रमै है । तहां जीव की प्रवृत्ति के सिद्धान्त में सामान्य करि चौदह गुणस्थान निरूपण किये हैं