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* तारण-वाणी *
कि जरिपतेन पहुना अर्थों धर्मश्च काममोक्षश्च । अन्येऽपि च व्यापारा मावे परिस्थिताः सर्वे ॥१६॥
(भावपाहुड) जिनवचन विर्षे दर्शन के तीन लिंग हैं चौथा नहीं
एक जिनस्य रूपं द्वितीयं उत्कृष्टश्रावकानां तु | अवरस्थितानां तृतीयं चतुर्थ पुनः लिंगदर्शनं नास्ति ॥
(अ. पा० १८) अप्पाणं पि ण पिच्छइ ण मुणइ ण वि सद्दहइ ण मावेइ । बहुदुक्खभारमूलं लिंगं चित्तूण किं करई ॥८॥
( रयणसार ) अर्थ-जो अपनी आत्मा को नहीं देखता है, नहीं जानता है, आत्मा का श्रद्धान नहीं करता है, न पात्मा के स्वरूप को अपने भावों में लगाता है और न यह आत्मा अपनी आत्मपरिणति में तल्लीन होता है तो फिर बहुत दुःख की कारणभूत साधु अवस्था से भी क्या लाभ ?
जाव ण जाणइ अप्पा अप्पाणं दुक्खमप्पणो तावं । तेण अणंतसुहाणं अप्पाणं भावए जोई ॥८९॥ णियतच्चुवलद्धि विणा सम्मत्तुवलद्धि गस्थि णियमेण ।
सम्मत्तुवलद्धि विणा णिन्वाणं णत्थि जिणुदिड ॥१०॥ अर्थ-अपने प्रात्मस्वरूप की प्राप्ति के बिना सम्यक्त की प्राप्ति नहीं है और सम्यक्त के बिना मोक्षप्राप्ति सर्वथा नहीं है, यह श्री जिनेन्द्रदेव का सुदृढ़ निश्चित सिद्धांत है ।
तीर्थकरमाषितार्थ गणधरदेवैः ग्रंथितं सम्यक् । भावय अनुदिनं अतुलं विशुद्धभावेन श्रुतज्ञानम् ॥९०॥
(भावप्राभृत) अर्थ-हे भव्य ! श्री तीर्थकर-भाषित व श्री गणधरों द्वारा जो सम्यक् प्रन्थ रचे गये हैं उनकी ही भावना-स्वाध्याय प्रतिदिन करो । क्योंकि शास्त्रज्ञान ही भावों की शुद्धि के लिये अतुलं कहिये प्रधान व समर्थ कारण है।