________________
• तारण-वाणी*
[११३ है और संज्वलन, लोभ को घायल कर देता है अर्थात् ( संज्वलन सूक्ष्मलोभ ) रह जाता है तब दसवें सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में पहुँचता है। और यहां पर जब यह उस 'संज्वलन सूक्ष्मलोभ' को भी जीत लेता है तब क्षपक श्रेणी के बल से ग्यारहवें में न जाकर सीधा क्षीणमोह नामक या क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान को प्राप्तकर अन्तर्मुहूर्त में ही केवलज्ञानी हो जाता है। और
आयु पर्यन्त इस तेरहवें गुणस्थान में बना रहकर आयु के अन्त में चौदहवें गुणम्थान को स्पर्श करता हुआ सिद्धलोक में जा विराजता है ।
___ पञ्चीस कषायों में १६ कषाएँ तो उपरोक्त तथा ६ नोकपाएँ इनमें आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान तक तो सभी का सद्भाव रहता है, नौवें में ६ छूटकर मात्र ३ वद कपाएँ सद्भाव रूप से रहती है, तदुपरांत इनका भी सवथा अभाव हो जाता है।
उपरोक्त पञ्चीस कषायों के इस लेख का एकमात्र प्रयोजन यही है कि हमारी आत्मा को संसार में रोकने वाली यह कपाएँ ही है। अथवा अपनी ही इन कषायों से हम संसार को अपना मानकर स्वयं बंधे हुए है और कहते यह रहते है कि हम क्या करें ? यह संसार हमें छोड़ना नहीं है । अत: यदि वास्तव में हमें इस संसार से पार होना है तो मिथ्यात्व और मिथ्यात्व से उत्पन्न हुई इन कषायों को उत्तरोत्तर कम करतं, जीतते जाना चाहिए। यही कल्याण मार्ग है, आत्मोन्नति है, आत्मविकाश है। यदि हम कषायों को कम न कर सके, जीत न सके तो सब कुछ करने पर भी कुछ नहीं है, दिग्वावा मात्र है, मायाचारी है, छल है। नथा संसार का छूटना तो दूर रहा उल्टा बढ़ाना ही हो जाता है।
BaklowN