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* तारण-वाणी *
नाम है 'प्रत्याख्यान कषाय' । प्रयोजन यह कि पूरे आत्मपुरुषार्थ से हमें अप्रत्याख्यान कषायों का सामना करके त्याग का मार्ग ग्रहण करना चाहिए ।
प्रत्याख्यान चार कपाएँ —— जब हम पांचवें देशव्रत गुणस्थान में आने पर त्यागी - श्रणुत्री, प्रतिमाधारा हो जाते हैं तब यह चारों ही कषाएँ अब हमें 'मुनिपद' लेने से रोकती है। कहना रहती हैं कि देखो ! देशकाल नहीं, परीषह सहन न कर सकोगे, चल-विचल हो जाओगे इत्यादि इत्यादि । अब यहां पर यदि हमारी आत्मा में पूर्वाचल स्फुरायमान हो जाता है तब तो इन कपायों को भी पराजित करके हम आगे बढ़ जाते हैं और मुनिपद ग्रहण कर लेते हैं अन्यथा अगु
ती ही बने रहते हैं। हाँ, वैराग्यभावना हमारी आत्मा के संस्कार में बनी रहती है जो जन्म में मुनिपद का योगानुयोग मिला देती है। यहां पर यह एक बात बहुत ध्यान में रखने की हैं कि कपयों को पराजय किए बिना मात्र लेश्याओं के आवेग में जिसका कि दूसरा नाम भावुकता है, कर न तो अत की और न महाव्रत की ही दीक्षा लेना चाहिए। यह जो त्यागी होकर या
न होकर कलकिन होते रहते हैं उनके भीतर के परिणाम कलुपित या कोधी, लोभी, मानी, मायाचारी रहते हैं । इसका मतलब यही है कि वे कपायों को जीते बिना भीतर से तो मिध्यात्व गुणम्थान में ही हैं परन्तु भावुकता में आकर त्यागी या मुनि बन गए हैं, इससे अपने पद को निर्दोष नहीं पाल सकते और अपवाद के पात्र बने रहते हैं। और अकामनिर्जरा से भवनत्रिक देवों की मिथ्यात्व योनि अथवा तप की साधना तो सही और पूरी, परन्तु आत्मज्ञान से हीन होने के कारण 'मुनित्रतधार अनंतवार, ग्रीक उपजायो । पै निज श्रातमज्ञान बिना सुखलेश न पायो । वाली बात चरितार्थ कर देते हैं, जो मोक्षमार्गी न बनकर संसारमार्गी ही बने रहते हैं । यहीं पर यह बात लागू हो जानी है कि- मोह रहित जो है ( सम्यक्ती ) गृहस्थ भी, मोक्षमार्ग अनुगामी है। मुनि होकर भी मोह ( मिथ्यात्व ) न छोड़ा, वह कुपंथ का गामी है ।
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प्रयोजन यह कि भीतर से मिध्यात्व व अनंतानुबंधी कषायों को छोड़कर यदि आत्मज्ञान पूर्वक ( सम्यक्ती बनकर ) हम अत्रत सम्यग्दृष्टि या अणुव्रती श्रावक बन जायें तो भी उस द्रव्यलिंगी मुनि से लाख दर्जे उत्तम हैं । और यदि आत्मज्ञानी ( सम्यक्ती ) होकर मुनिपद हो तब तो सोने में सुगन्धि वाली बात बन जाय ।
संज्वलन चार कषाएँ—जब हम प्रमत्त नामक छटवें गुणस्थानवर्ती अर्थात् मुनि अवस्था में पहुँच जाते हैं वहां मात्र ये ही संज्वलन कषाएँ रहती हैं और यह नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक साथ रहती हुई यथाख्यातचारित्र (पूर्ण आत्मरमण या पूर्ण आत्मचारित्र ) होने से रोके रहती हैं। कितना भी दुद्धर तप करते रहो परन्तु केवलज्ञान नहीं हो पाता, जब तक कि इन कषायों पर विजयशील न हो जायें। जब यह जीव संज्वलन, क्रोध, मान, माया को सर्वथा जीत लेता