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* तारण-वाणी *
कालदोष से जैनधर्म में भी अनेक मतभेद हो गये
हम तो भगवान जिनेन्द्रदेव महावीर स्वामी से प्रार्थना करते हैं कि सम्यक्त वाली सच्ची समभी हुई बात को मानने और उस पर चलने का बल हम सब को प्रदान करें, चाहे कोई कितना भी विरोध क्यों न करे, क्योंकि यह मनुष्य जन्म, उत्तमकुल, उत्तमक्षेत्र तथा सर्वोत्तम जैन धर्म बड़े भाग्य से मिला है कि जैसे समुद्र में डूबी हुई राई फिर से मिल जाय ।
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श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत अष्टपाहुड़ है, जिसमें सर्वप्रथम दर्शनपाहुड़ कहा क्योंकि 'दसण मूलो धम्म' दर्शन ही धर्म का मूल है। इस प्रथम दर्शनपाहुड़ की रहवीं गाथा में कहा है कि जो चौंसठ चमन कर सहित हैं, बहुरि चौंतीस अतिशय करि सहित हैं, बहुरि निरन्तर बहुत प्राणीनिका हित जाकरि होय है ऐसे उपदेश के दाता हैं, बहुरि कर्म के क्षय का कारण हैं, ऐसे तीर्थंकर परमदेव हैं, ते बंदिवे योग्य हैं । अब यहीं पर यह विचारना है कि यदि उस समय प्रतिमा होती तो श्री कुन्दकुन्दाचार्य बराबर इसी प्रसंग में यह लिख देते कि और जब कि आज इस पंचम काल में ऐसे श्री तीर्थंकरदेव नहीं हैं तो उनकी प्रतिना वंदिवे योग्य है; लेकिन यह पूरे ग्रन्थ में कहीं नहीं लिखा, प्रत्युत गाथा ३५ में और भी यह स्पष्ट किया है कि
विहरदि जाव जिनिंदो सहससुलक्खणेहिं संजुत्ता | चउतीस अइसयजुदो सा पडिमा थावरा भणिया ||३५ ॥
विहरति यावज्जिनेन्द्रः सहस्राष्ट सुलक्षणैः संयुक्तः । चतुस्त्रिंशदतिशययुतः सा प्रतिमा स्थावरा भणिता ||३५||
अर्थ - केवलज्ञान भये पीछे जिनेन्द्र भगवान जब तक आर्यखण्ड में बिहार करें तब तक तिनकी प्रतिमा कहिये शरीर सहित प्रतिबिंब तिसकू' 'थावर प्रतिमा' ऐसा नाम कहिये ।
भावार्थ - भगवान जिनेन्द्रदेव जब तक १००८ सुलक्षणों सहित और चौंतीस अतिशय युक्त विहार करें उन्हें स्थावर प्रतिमा कहा I
इससे यह स्पष्ट झलकता है कि शायद उस समय जबकि श्री कुन्दकुन्द स्वामी थे बौद्ध या हिन्दूधर्म में प्रतिमा चल पड़ी होगी उसी के समाधान में यह सोचकर कि कहीं हमारे जैनधर्म में ऐसी प्रतिमा (धातु पाषाण की ) न चल जाय, श्री कुन्दकुन्द स्वामी को यह लिखना पड़ा कि भगवान जब तक स्वयं रहते हुए बिहार करते हैं तब तक वे हो अर्थात् उनका शरीर ही स्थावर प्रतिमा है ।
कुन्दकुन्द स्वामी का समय कोई पहली, कोई तीसरी और पांचवीं तथा कोई वीं वीं शताब्दि मानते हैं और यह प्रतिमा प्रथा जेनसमाज में वीं वीं शताब्दि से चली है ऐसा अनुभवी