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* तारण-वाणी *
शम सम्यक्त को नाशकर देता है तथा कपायों की वृद्धि अधिक होती है, और मिध्यास्त्र का प्रचल उदय रहता है जिससे उपशम सम्यक्त भी हो नहीं सकता, और यदि होता है तो शीघ्र नष्ट हो जाता है। फिर भी हार न मानकर दृढ़तापूर्वक हमें प्राप्त करना चाहिये, क्योंकि यह मनुष्य जन्म कठिनता से मिला है ।
श्रतएव श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने एकमात्र यही मार्ग आत्मकल्याण का बताया है— णाणेण झाणसिद्धी झाणादो सव्चकम्मणिज्जरणं ।
णिज्जरणफलं मोक्खं गाणन्मासं तदो कुज्जा || १४५ ।।
अर्थ
थं - आत्मज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है, ध्यान से समस्त कर्मों की निर्जरा होती है तथा समस्त कमों की निर्जरा हो जाने से मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसलिये भव्यजीवों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये सबसे पहले ज्ञान का अभ्यास करना चाहिये ।
यही कारण है कि श्री तारण स्वामी ने बहिरात्मापने के अवलम्बनों से छुड़ाकर अन्तगत्मा बनने के लिये एकमात्र शास्त्रमनन के द्वारा ज्ञान का अभ्यास करने के लिये श्रावकों को शास्त्रों का अवलम्बन कराया और बताया कि आत्मकल्याण के लिये सर्वप्रथम सर्वश्रेष्ठ और समर्थ कारण यदि कोई अवलम्बन है तो ज्ञानाभ्यास के मूल कारण शास्त्र हैं और शास्त्र ही सम्यक्त प्राप्ति के लिये प्रथम सीढ़ी । कहां और क्या अन्तर रह गया श्री कुंदकुंदादि आचार्यों में और श्री तारण तरणाचार्य में ?
मैं तो कहूँगा कि समस्त जैनप्रथों का दोहन करके श्री तारण स्वामी ने सबका सार अपने ग्रंथों में भर दिया है यदि कोई निष्पक्ष दृष्टि से देखे तो सच्ची कुंदकुंदाम्नाय उसे श्री तारणस्वामी के ग्रंथों में मिलेगी ।
ध्यान रहे उपरोक्त गाथा नं० १४५ का कथन श्रावक के लिए ही किया गया है क्योंकि गाथा नं० १५३ और १५४ में श्रावक की ५३ क्रियाओं का क्रम से वर्णन चल रहा है ।
श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने जिस तरह श्रावकों को श्रावक धर्म के लिये सर्वप्रथम ज्ञानाभ्यास करने का उपदेश किया है उसी तरह आगे गाथा नं० १५६ में मुनि के लिये भी श्रुतभावना अर्थात् शास्त्राध्यन करते रहने का उपदेश किया है इससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया कि गाथा नं० १५५ श्रावकों को तथा गाथा नं० १५६ मुनियों के लिये कही गई है। आगे गाथा १६० में कहा कि कोई चाहे जैसा विद्वान् क्यों न हो तथापि बिना सम्यग्दर्शन के उसे अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है, संसार से पार कर देनेवाला एक सम्यग्दर्शन ही है, सम्यग्दर्शन के सिवाय अन्य किसी से भी मोक्षसुख की प्राप्ति नहीं हो सकती ।