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जैनधर्म की कहानियाँ रत्नचूल ने उसे बुलाने की आज्ञा दे दी। राजा की आज्ञा पाकर द्वारपाल शीघ्र ही जम्बूकुमार के पास आया और कुमार को भीतर ले गया। जम्बूकमार अपनी कांति से तेज को फैलाते हुए निर्भय होकर भीतर चले गये और राजा को नमस्कार किये बिना ही सामने खड़े हो गये।
रत्नचूल उसे आश्चर्य-युक्त नेत्रों से देखने लगे और अन्दर ही अन्दर सोचने लगे - “यह कैसा दूत है, जो राजोचित विनय को भी नहीं जानता! कुछ कहे बिना खम्भे के समान खड़ा है। मालूम पड़ता है कि कोई देव ही मेरे बल की परीक्षा करने आया है।"
कुमार का रूप-लावण्य देखकर सभी लोगों को देव का भ्रम हो जाया करता था, क्योंकि इतना सुन्दर कोई दूत कभी किसी ने देखा ही नहीं था। वास्तव में मोक्षगामी व्यक्तियों के साथ पुण्यरूपी लक्ष्मी तो उनकी दासी बनकर घूमती है, क्योंकि पुण्य भी पवित्रता का सहचारी हुआ करता है।
रत्नचूल राजा भी दुविधा के झूले में झूलने लगा - “पता नहीं यह देव है या दूत ? मित्र है या शत्रु ? इसके साथ किस प्रकार का व्यवहार किया जाय ?"
अत: दुविधा में फँसा रत्नचूल अचानक उसका परिचय पूछने लगा - "आप किस देश से आये हैं और किस काम के लिए मेरे पास आये हुए हैं ?" __ जम्बूकुमार बोले - "मैं नीतिमार्ग का आश्रय करके तुम्हें समझाने के लिए से यहाँ आया हैं।"
रत्नचूल बोला - “कहिए दूत! तुम क्या नीतिमार्ग सिखाने आये हो।"
तब दूत बने जम्बूकुमार बोले - “राजा खोटे हठग्राही नहीं हुआ करते। दुराग्रह से राजा इस लोक एवं पर लोक दोनों ही लोकों में निंदा का पात्र और दुःख का भाजन बनता है। इससे तुम्हारा अपयश तो होगा ही और दुर्गति के कारण रूप पाप का बंध भी होगा। इस जगत में बहुत-सी एक से एक सुन्दर कन्यायें हैं। तुम्हें इसकी ही हठ क्यों है? किसी दूसरे की चीज को बलजबरी