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श्री जम्बूस्वामी चरित्र
६७ है परम दिगम्बर भुद्रा जिनकी, वन वन करें बसेरा। मैं उन चरणों का चेरा, हो वन्दन उनको मेरा॥ शाश्वत सुखमय चैतन्य सदन में, रहता जिनका डेरा। मैं उन चरणों का चेरा, हो वन्दन उनको मेरा॥
उसके बाद सभी जन अपने नगर को वापिस आ रहे थे। साथ में शिवकुमार भी थे। उनका मन मुनिवर वृन्दों के साथ ही रहने का था, मगर क्या करें? वचनबद्ध कुमार आ तो नगर की
ओर रहे थे, परन्तु पुनः पुनः पीछे मुड़-मुड़कर मुनिवरों को निहार रहे थे। संसार, देह, भोगों से विरक्त कुमार घर आते ही सर्व जनों से उदास पहल के ही उद्यान में एकांतवास करने लगे, ब्रह्मचर्य के रंग में सरावोर हो मात्र एक वस्त्र सहित मुनिपद की भावना से पूर्ण व्रतों को पालने लगे, अपने ब्रह्मस्वरूप में लीन रहने लगे। विषय-कषाय तो अब कहाँ पलायमान हो गये, पता ही नहीं। वैरागी कुमार रानियों आदि को भूल ही गये, वे जल तें भिन्न कमल की भाँति विरागी होकर रह रहे थे। सचमुच सम्यग्ज्ञान की कोई अद्भुत महिमा है। महापुरुषों को कोई भी कार्य दुर्लभ नहीं होता।
__ अनाहारी पद की साधना में रत ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले कुमार कभी एक उपवास, कभी दो उपवास, कभी एक पक्ष के उपवास तो कभी एक माह के उपवास के बाद शुद्ध प्रासुक आहार से पारणा करते। मित्र में अति अनुरागी चित्तवाला दृढ़रथ भी, अपने मित्र को ज्ञान-वैराग्य रस में सरावोर देखकर संसार, देह, भोगों से उदासीन हो, मित्र के समान ही धर्मपालन करता हुआ, मित्र के ही साथ उद्यान के एकांत स्थान में रहने लगा। दोनों ही आत्मसाधना में रत थे। दोनों ही वीतरागी दुनिया में विचरण कर रहे थे।
वैराग्य रस में पगे ब्रह्मचारी कुमार ने अति उग्र तप का आदर किया एवं काम-क्रोधादि विकारी भावों को निःसत्व कर दिया। मोक्ष के आराधक ब्रह्मचारी कुमार ने संसार-दुःखों से भयभीत हो, मोक्ष के हेतु ६४,००० चौंसठ हजार वर्ष तक तप करते हुए आयु के अंत में अतीन्द्रिय आनंदमयी परम दिगम्बर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। वे अब मुनिपद में शोभायमान होने लगे। जितेन्द्रिय मुनिराज