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जैनधर्म की कहानियाँ ने चार प्रकार के आहारों का त्याग कर आत्माधीन हो नश्वर काया का त्याग किया।
पुण्योदय से वे अनेक अणिमा आदि ऋद्धियों से पूर्ण छठे ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में विद्युन्माली इन्द्र के रूप में उत्पन्न हुए। उस देव की दस सागर की आयु थी। उसके पास उसी विमान में चार देवियाँ विद्यमान थीं। विद्युन्माली देव सम्यग्दृष्टि होने से धर्मात्मा था। धर्मी जीवों के मन में संयोग के वियोग कृत दुःख व शोक नहीं होता। वे इष्ट के वियोग में और मरण के संयोग में समता के धारी होते हैं, इसलिए हे श्रेणिक! इनकी माला भी नहीं मुरझाई
और न देह ही कांतिहीन हुआ और न ही उसके सहवास से कल्पवृक्ष मंदज्योति हुए।
यह सुनकर श्रेणिक राजा विचारता है कि - "असंयोगी तत्त्व के आराधकों की वृत्ति कोई अलौकिकी होती है। वे संयोगों से एवं संयोगी भावों से जितने भिन्न रहते हैं, उतने ही संयोग उनके पुण्यरूपी छाया के प्रताप से उनका दासत्व स्वीकार कर सर्वस्व समर्पण कर देते हैं।"
श्रेणिक राजा - “हे गुरुराज! श्री सागरचन्द्र मुनिराज फिर कहाँ चले गये? उनका सम्यक् वृत्तांत सुनने की मेरी भावना हुई है।"
गणधर देव - “हे भव्योत्तम! सागर-सम धीर एवं गुण-गंभीर सागरचन्द्र मुनिराज ने भी उग्र तप करके समाधिमरण पूर्वक शरीर का त्याग कर दिया। उनका जीव भी छठे स्वर्ग में अणिमादि गुणों से पूर्ण प्रतीन्द्र हुआ। वह भी पंचेन्द्रिय संबंधी नानाप्रकार के सुखों की इच्छा से निर्बाध स्वर्गोपनीत भोगों को भोग रहा है।
धर्म ही वह कल्पतरु है, नहीं जिसमें याचना। धर्म ही चिंतामणी है, नहीं जिसमें चाहना। धर्मतरु से याचना बिन, पूर्ण होती कामना।
धर्म ही चिन्तामणी है, शुद्धात्मा की साधना।। इसलिए हे बुद्धिमानों! अखिल प्रयत्न से इस धर्म को धारण करना ही योग्य है।"