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श्री जम्बूस्वामी चरित्र कठोर कार्य है, उसे लेने के लिये शिवकुमार आज ही तैयार है - यह समाचार मै चक्रवर्ती को कैसे कहँगा? इस समाचार को सुनते ही चक्रवर्ती की क्या हालत होगी? हाय, कुछ अनिष्ट न हो जाय?"
इसतरह अनेक तरह के विचारों में मग्न दृढ़रथ चिंतातुर बैठा था कि अचानक चक्रवर्ती की नजर उस पर पड़ी। उसे उदास देखते ही चक्रवर्ती सोचने लगा - "अवश्य ही कोई गूढ़ कारण है।"
चक्रवर्ती - "हे सुत-वल्लभ! ऐसा कौन-सा कारण है, जो तुम इतने उदास दिख रहे हो? तुम अपनी उदासी का कारण शीघ्र बताओ?'
दृढ़रथ - "हे तात! शिवकुमार संसार के दुःखदायक भोगों से उदास हो गया है। वह निकट भव्य है, शुद्ध सम्यग्दृष्टि है। वह राज्य-सम्पदा को सड़े हुए तृण के समान गिनता है। धन-वैभव, महल, रानियाँ, पुत्र, जीवन-मरण सबके प्रति अत्यन्त विरक्त हो गया है। वह आत्मस्वरूप का ज्ञाता है, तत्वज्ञानी है, श्रेष्ठ विद्वान है। वह जैन साधु के समान सर्व त्यागने योग्य और ग्रहण करने योग्य का जानकार है। उसका मन आत्म-साधना में मेरु के समान अकंप हो गया है और अपना कार्य करने में अतिदृढ़ है, जगत में अब ऐसी कोई शक्ति नहीं है, जो उसे डिगा सके। उसे जैन मुनि के दर्शनमात्र से पूर्वजन्म के संस्कार उदित हो जाने से वैराग्य हो गया है। वह समस्त जीवों के प्रति राग-विरोध को त्यागकर समता स्वभावी होकर परमहित-दायिनी जिन-दीक्षा लेना चाहता है।"
चक्रवर्ती वज्राघात के समान इन कठोर शब्दों को सुनते ही शोक के सागर में डूब गया। उसका मोहित हृदय अगणित शस्त्रों से मानों वेध दिया गया हो। आँखों से सावन-भादों की झड़ी लग गई! वह दीन भाव से विलाप करने लगा - "मैं भाग्यहीन हूँ। अरे, रे! मैं कुछ और ही सोच रहा था, परन्तु दैवयोग से कुछ
र ही हो गया। जैसे कमला के मध्य सुगंध की इच्छा से बैठा हामर हाथी द्वारा कमल मुख में लेने पर प्राण खो बैठत्ता है। उसीप्रकार हे पुत्र! तुझे ऐसी बुद्धि किसने दो? तुझे ऐसा विचार किस कारण से आया? तेरा यह सुकुमार शारीर इतना कठोर मुनिधर्म कैसे पाल सकेगा? यह कार्य असंभव है, कभी नहीं हो सकता।