________________
जैनधर्म की कहानियाँ इसलिए हे पुत्र! इस साम्राज्य को ग्रहण करो, जिसको सर्व राजा सदा नमन करते हैं। देवों को भी दुर्लभ महा भोगों को तुम भोगो। स्वयं सुखी रहो और सभी को सुखी रखो।"
पुत्र - "हे तात! ये राज्य-सम्पदा, ये महल, ये रानियाँ, ये दुःखदायक पराधीन भोग, ये माँस-मज्जा, हाड़-रुधिरादि से युक्त अशुचि देह, इत्यादि सभी को मैंने अनादिकाल से अपने अकृत्रिम चेतन प्रभु की प्रभुता को भूलकर अनंत बार भोगा है, परन्तु कहीं सुख की झलक भी नहीं मिली। नरक, निगोद, पशु की पर्यायों में मैंने वचनातीत दुःख पाये हैं। देवों में गया तो मानसिक पीड़ा में झुलसता रहा, मनुष्य पर्याय में आया तो कभी गर्भ में ही मर गया, कभी जन्म के घोर दुःखों को सहते हुए बालपने में ही मर गया, कभी दीन-दरिद्री हुआ तो भूख, प्यास, रोगादि के दुःख सहे, कभी जल गया, कभी हाथ-पैर टूट गये तो कभी रोग से गल गये, कभी सड़ गये और कभी वैरियों द्वारा काटा गया, मारा गया तो कभी विषयरूपी नागिन से डसा गया, इस चतुर्गति में मुझे कहीं सुख दिखा ही नहीं। इसलिए मेरा दृढ़ निर्णय है कि मैं संसार-समुद्र से पार उतारनेवाली जिनदीक्षा ग्रहण करूँगा ही।"
चक्रवर्ती - "हे पुत्र! तुम्हारा कर्त्तव्य माता-पिता को सुख-शांति प्रदान करना है, राज्य का भार संभालकर पिता को राज्य की चिंता से मुक्त कर आत्म-साधना का सुअवसर देना है, ये पाँच सौ पद्मिनी-जैसी बालायें तेरे बिना कैसे जीवन बितायेंगी? अरे! इस राज्य में कोई दु:खी नहीं है और शोक-संताप तो कहीं का दूर-दूर भाग गया है, परंतु तेरे बिना ये राज्य श्मशान बन जायेगा। ये रानियाँ, ये प्रजा आदि शोक के समुद्र में डूबकर जीवन को भाररूप अनुभव करने लगेंगी। क्या तुम्हें यह सब-कुछ उचित लगता है ?"
पुत्र - “हे तात! राज्य के राग में जलना तो किसी को भी उचित नहीं है। मेरा कर्तव्य मात-तात-परिजन-पुरजन - सभी को वीतरागी मार्ग प्रशस्त करना है। रत्नत्रय स्वयं प्राप्त करना और सभी को उसी मार्ग में लगाना है। पिताजी आगम में आता है कि राजेश्वरी सो नरकेश्वरी इसलिए राज-पाट त्यागकर मोक्ष की राह ग्रहण करना ही श्रेष्ठ है। यह वीतरागी धर्म ही महान है, उत्तम