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जैनधर्म की कहानियाँ उसे समझाते हुए पूछने लगे - “क्या कारण है कुमार?"
तब कुमार पिता के मोह और वातावरण की गंभीरता को देखकर मौन ही रहे। इष्टजनों के अधिक पूछने पर कुमार ने अपने अनन्य मित्र मंत्री-पुत्र दृढ़रथ को एकांत में बुलाकर अपने मन के सभी भाव अर्थात् अपने जाति-स्मरण से पूर्वभवों का सम्पूर्ण वृत्तांत सुना दिया। सो योग्य ही है, क्योंकि -
चिंतागूढमदार्तानां मित्रं स्यात्यमरौषधः।
यतो युक्तायुक्तं वा सर्वं तत्र निवेद्यते॥ चिंतारूपी गूढ रोग से दुःखी जीवों के लिए मित्र बड़ी भारी औषधि होती है। मित्र के पास योग्य-अयोग्य सभी कुछ कह दिया जाता है।
शिवकुमार का वैराग्य शिवकुमार ने मित्र से कहा - "हे मित्र! मुझे यह राज-पाट श्मशान के समान लगता है, ये सुन्दर पाँच शतक रानियों के भोग काले नाग समान भासित होते हैं। यह सुन्दर काया श्मशान की राख तुल्य दिखती है। ये माता-पिता मोह के जाल जैसे लगते हैं। हे मित्र! मैं तो सादि अनंत अपरिमित अतीन्द्रिय सुख की दात्री जैनेश्वरी दीक्षा लेना चाहता हूँ और मैं माता-पिता की प्राणों से भी प्रिय संतान हूँ, इसलिए ये माता-पिता मुझे वीतरागी पथ पर जाने से रोकेंगे, मेरे ऊपर प्रतिबंध लगायेंगे, परन्तु अब मैं एक क्षण भी उनमें फँसना नहीं चाहता। मुझे तो सिद्ध समान सुख अभी चाहिए। उन प्रतिबंध के कारणों को जानकर ही मुझे मूर्छा आ गई थी।"
शिवकुमार के भावों को जानकर मित्र भी कुछ समय तो हतप्रभ सा रह गया - " अरे! यह राजकुमार है। इसके कोमल तन में कभी भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि की बाधायें देखी ही नहीं; कभी कठोर वचन सुने ही नहीं। यह वन-जंगल में बाघ सिंह आदि भयंकर क्रूर पशुओं की भय उत्पादक आवाज, उनके द्वारा किये जाने वाले घोर-अतिधोर. उपसर्ग-परीषहों को कैसे सहेगा? जिन-दीक्षा तो महान