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श्री जम्बूस्वामी चरित्र भावों को पुनः आराधना में लगाया और संघसहित गुरुवर के साथ वर्धमानपुरी से विहार किया। अनेक वन, उपवन, जंगलों, पर्वतों आदि में विहार करते हुए पूज्य श्री गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञानदान को पाकर अध्ययन आदि के साथ संयम की आराधना करते हुए बहुत समय बीत गया।
एक बार श्री सौधर्माचार्य संघ सहित पुन: उसी वर्धमानपुरी के वनखंडों में पधारे। सर्व ही मुनिराज नगर के बाहर वन के एकांत स्थान में शुद्धात्मा के ध्यान में तल्लीन हो कायोत्सर्ग पूर्वक तप करने में संलग्न थे, उसीसमय भवदेव मुनिराज को विचार आया - "आज मैं पारणा के लिये नगर में जाऊँगा और अपने घर में जाकर अपनी मनोहर पत्नी से मिलूंगा। मेरे विरह से उसकी दशा वैसी ही होती होगी, जैसे जल के बिना मछली की होती हैं" - इसप्रकार के भाव करते हुए भवदेव मुनि वर्धमानपुरी को आ
भवदेव मुनि तो संध्या के उस सूर्य की लालिमा के समान थे, जो रात्रि होने के पहले पश्चिम दिशा को जा रहा है। नगर में आकर उन्होंने एक सुन्दर एवं ऊँचे जिनमंदिर को देखा। वह मंदिर ऊँची-ऊँची ध्वजाओं एवं तोरणों से सुशोभित था। मणिरत्नों की मालायें उसकी शोभा बढ़ा रही थीं। वहाँ अनेक नगरवासी दर्शन कर प्रदक्षिणा देकर भावभक्ति से प्रभु की पूजन करते थे, कोई मधुर स्वर में गान कर रहे थे, कोई शांत भाव से प्रभु का गुण-स्तवन कर रहे थे, कोई आत्म-शांति-हेतु चितवन-मनन में मग्न थे तथा कोई ध्यानस्थ बैठे हुए थे। भवदेव मुनि भी जिनेन्द्रदेव का दर्शन कर अपने योग्य स्थान में बैठ गये।
नागवसु द्वारा आर्यिका व्रत धारण जब भवदेव अपने बड़े भ्राता भावदेव मुनिराज को विनयपूर्वक वन-जंगल तक पहुँचाने गये थे, तब आचार्य-संघ का दर्शन पा और आत्म-हितकारी उपदेश श्रवण कर भवदेव के मन में एक द्वन्द पैदा हो जाने से वे बहुत समय तक घर वापिस नहीं आये। इसलिए नागवसु को ऐसा विचार आया कि कहीं मेरे पतिदेव ने मुनिदीक्षा