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जैनधर्म की कहानियाँ अवस. पाकर मैं अपने घर को लौट जाऊँगा। पुन: उसका मन पलटा - "अरे! मुझे ऐसा करना योग्य नहीं। मैं अभी ही जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार करूँगा।"
_भवदेव द्वारा मुनिदीक्षा अंगीकार भवदेव, अनंत सुख की दाता पारमेश्वरी जिनदीक्षा के भावों से आकंठ पूरित हो गुरुवर्य श्री सौधर्माचार्य के चरणों में हाथ जोड़कर नमस्कार करता हुआ प्रार्थना करने लगा - "हे स्वामिन् ! मैंने इस संसार में अनंत दुःखों से दुःखी होकर भ्रमते हुए आज ज्ञान-नेत्र प्रदान करने वाले तथा संसार से उद्धार करने वाले आपके चरणों की शरण पायी है, इसलिये हे नाथ! मुझे जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान कर अनुगृहीत कीजिए। मैं अब इन सांसारिक दुःखों से थू-ना चाहता
श्री सौधर्माचार्य गुरुवर ने अपने अवधिज्ञान से भवदेव के अन्दर जो विषयों की अभिलाषा छिपी हुई थी उसे जान तो लिया, लेकिन उसके साथ-साथ उन्हें उसका उज्ज्वल भविष्य भी ज्ञात हुआ कि इसकी पत्नी जो कि आर्यिका पद में सुशोभित होगी वह इसे संबोधेगी, तब यह भी महा वैराग्य-रप्त-धारी सच्चा मुनि होकर विचरेगा।
पारमेश्वरी जिनदीक्षा के अभिलाषी, वर्तमान में उदासीनता युक्त भवदेव को श्री गुरु ने अहंत धर्म की यथोक्त विधिपूर्वक जिनदीक्षा देकर अनुगृहीत किया। भवदेव ने भी पंचपरमेष्ठियों एवं सम्पूर्ण संघ तथा श्रोताजनों की साक्षीपूर्वक चौबीस प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर केशलोंच करके निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण कर ली। श्री भवदेव मुनिराज सम्पूर्ण संघ के समान ही स्वाध्याय, ध्यान, व्रत एवं तप को करने लगे, परन्तु कभी-कभी उनके हृदय में अपनी पत्नी की याद भी
आ जाया करती थी, जिससे वे यह सोचने लगते थे कि वह तरुणी मेरा स्मरण कर-करके दुःखी होती होगी।
__ "अरे! इसप्रकार के विचार करना मुझे योग्य नहीं है। अब मैंने जिनदीक्षा धारण कर ली है, इसलिए मुझे सम्यक् रत्नत्रय की ही भावना करना योग्य है। संसार की कारणभूत स्त्री के स्मरण से अब मुझे क्या प्रयोजन है?' - इसतरह भवदेव मुनि ने अपने