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श्री जम्बूस्वामी चरित्र अरे! “किसे अपनाऊँ - किसे न अपनाऊँ ? मैं तो सुख का मार्ग ही अपनाऊँगा।" - इसप्रकार विचारमग्न भवदेव दुविधा में झूल रहा था - "अरे रे! वह नागवस्तु क्या सोचेगी? उसके ऊपर क्या बीत रही होगी? क्या एक निरपराधी के साथ ऐसा करना अनुचित नहीं होगा? क्या मैं पामर नहीं माना जाऊँगा? क्या मैं लोक में हँसी का पात्र नहीं होऊँगा?..... नहीं, नहीं लोक संज्ञा से लोकाग्र में नहीं जाया जा सकता। एक बार पत्नी और परिवारजन भले ही दु:खी हो लें, समाज कुछ भी कहे, मगर समझदारों का विवेक तो हमेशा हित-गवेषणा में तत्पर रहता है। मैं तो जैनेश्वरी दीक्षा ही अंगीकार करूँगा।"
इसप्रकार के द्वन्दों में झूलता हुआ भवदेव, मुनिराज के साथ पूज्य गुरुवर श्री सौधर्माचार्य के निकट पहुँच गया। गुरुराज को नमस्कार कर वहीं दोनों जन विनयपूर्वक बैठ गये। संघस्थ मुनिवर वृन्दों ने श्री भावदेव मुनिराज को कहा - "हे महाभाग्य ! तुम धन्य हो, जो इस निकट भव्यात्मा को यहाँ इस समय लेकर आये हो। आप दोनों मोक्षमागी आत्मा हो। आप दोनों के कंधों पर ही धर्म का स्यन्दन (रथ) चलेगा।"
वन में विराजमान मोक्ष मंडली एवं वहाँ के शांत वातावरण को देख भवदेव मन ही मन विचारने लगा - "मैं परमपवित्र इस संयम को धारण करूँ या पुनः घर जाकर नवीन वधू को संबोध कर वापिस आकर जिनदीक्षा लूँ।" ___ संशय के हिंडोले में झूलता हुआ भवदेव का मन एक क्षण भी स्थिर न रह सका। वह विचारता है - "अभी मेरे मन में संशय है, अतः मैं दिगंबर वेष कैसे धर सकूँगा? और मेरा मन भी कामरूपी सर्प से डसा हुआ है। मेरे जैसा दीन पुरुष इस महान पद को कैसे धारण कर सकेगा? लेकिन यदि मैं गुरु-वाक्य को शिरोधार्य न करूँ तो मेरे बड़े भ्राता को बहुत ही ठेस पहुँचेगी।"
इसतरह उसने अनेक प्रकार के विकल्पजालों में फंसे हुए अपने मन को कुछ स्थिर करके सोचा तो अंततोगत्वा उसे परमसुखदायनी, आनंदप्रदायनी जैनेश्वरी दीक्षा ही श्रेष्ठ भासित हुई। फिर भी उसके मन में यह भाव भी आया कि कुछ समय यहाँ रहकर बाद में