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जैनधर्म की कहानियाँ आहार लेकर श्री भावदेव मुनिराज ने वन की ओर गमन किया जहाँ उनके गुरुवर श्री सौधर्माचार्यजी विराज रहे थे। ईर्यासमितिपूर्वक योगीराज गमन कर रहे हैं, उनकी विनय करने की भावना से भरे हृदय वाले अनेक नगरवासियों के साथ भवदेव श्रावक श्री गुरुवर को वन तक पहुँचाने के भाव से उनके पीछे-पीछे चल रहा है। कुछ व्यक्ति तो थोड़ी दूर जाकर मुनिराज को नमस्कार कर वापिस अपने-अपने घर को लौट आये, मगर भवदेव सोचता था कि मुनिराज आज्ञा देंगे, तभी मैं जाऊँगा। मुनिराज तो कुछ भी बोले बिना आनंद की धुन में झूलते-झूलते आगे बढ़ते ही जा रहे थे। भवदेव सोचने लगा - "अब हम नगर से बहुत दूर आ गये हैं, इसलिए भाई को बचपन के खेलने-कूदने के स्थलों की याद दिलाऊँ, शायद इससे वे मुझे वापिस लौटने की आज्ञा दे दें।"
अवदेव बोला - “हे प्रभो! हम दोनों बचपन में यहाँ क्रीड़ा करने आया करते थे। यह क्रीड़ा-स्थल अपने नगर से कितनी दूर है? यह उद्यान भी कितनी दूर है, जिसमें हम गेंद खेला करते थे? यहाँ अपने नगर का कमलों से सुशोभित सरोवर है, जहाँ हम स्नान किया करते थे। यहाँ हम दोनों मोर की ध्वनि सुनने बैठा करते थे।"
इत्यादि अनेक प्रसंगों की याद दिलाते हुए वह चल तो रहा था मुनिराज के साथ, मगर अपने हाथ में बँधी कंकण की गाँठ को देख-देखकर उसका मन अन्दर ही अन्दर आकुलित हो रहा था। उसके पैर मूर्छित मनुष्य की तरह लड़खड़ाते हुए पड़ रहे थे, उसके नेत्रों में पत्नी की ही छवि दिख रही थी और नवीन वधू नागवसु की याद से उसका मुखकमल भी मुरझाया जैसा हो गया था।
दूसरी ओर उसके मन में अनंत सुखमय वीतरागी संतों का मार्ग भी भा तो रहा ही था, उसका मन बारंबार इन्द्रियसुख से विलक्षण अतीन्द्रिय सुख का प्रचुर स्वसंवेदन करने के लिए प्रेरित हो रहा था। एक ओर सांसारिक दुःखों की भयंकर गहरी खाई तो दूसरी ओर सादि अनंत काल के लिए आत्मिक अनंत आनंद दिख रहा था।