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जैनधर्म की कहानियाँ तो धारण नहीं कर ली है? पता चलाने पर उसके विचार सत्य ही निकले। आचार्यदेव तो संघ सहित विहार कर ही गये थे। तब नागवसु ने सोचा - "जब पतिदेव ही दीक्षित हो गये हैं, तब मैं भी क्यों न उनका ही पंथ अंगीकार करूँ?" __अन्दर में कुछ उदासी तो आ गई थी, फिर भी वह घर में रहती हुई दिन-रात द्वन्द में पड़ी-पड़ी विचार करती थी - "जब पतिदेव ने ही भोग के समय योग धारण कर लिया, संसार को ठुकराकर सच्चे सुख का मार्ग ग्रहण कर लिया तो मैं भी क्यों न सच्चे सुख का ही मार्ग ग्रहण करूँ?"
वह पुनः अपने भावों को टटोलती है - "वीतरागी मार्ग में तो कठिनाइयाँ बहुत आती हैं। मैं उपसर्ग-परीषहों को कैसे सहँगी? वनखंडों की सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास आदि की बाधाओं को मेरा यह कोमल शरीर कैसे सहेगा? मैंने यह मार्ग कभी देखा ही नहीं, क्या पता मैं इसका निर्दोष पालन कर पाऊँगी या नहीं?" इत्यादि।
पुनः इसके भाव पलटते हैं - "अरे! गजकुमार, सुकुमाल एवं सुकौशलजी आदि तो मेरे से भी अधिक सुकोमल तन के धारी थे, बाह्य साधन-सामग्री भी बहुत थी, फिर भी उनने यह कुछ भी नहीं सोचा। बस जैसे वे अपने हित के मार्ग पर निकल पड़े थे, वैसे ही मुझे भी कुछ नहीं सोचना है। धर्म के आराधकों को तो आत्म-शांति की धुन में कुछ खबर ही नहीं पड़ती कि बाहर में क्या हो रहा है।"
मोक्षसुख की भावना से ओतप्रोत नागवस्तु ने भी पूज्य गणीजी के पास जाकर नमस्कार करके आर्यिकाव्रत प्रदान करने की प्रार्थना को - "हे माता! मेरा चित्त अब संसार के दुःखों से थक चुका है। मैंने धर्म से पराङमुख होकर नरक-निगोद के अनंत दुःख सहे हैं, अब मैं शांति चाहती हूँ, इसलिए हे माता! मुझे आत्म-शांति को देनेवाली दीक्षा देकर अपनी शरण में लीजिए।"
तभी पूज्य गणीजी ने नागवस्तु को पात्र जानकर आर्यिका के व्रत प्रदान किये। सम्यग्दर्शन एवं देशव्रतों से सुशोभित नागवस्तु आर्यिकाजी भी खूब अध्ययन एवं ध्यान में रत होकर उग्र तप करने लगी।