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जैनधर्म की कहानियाँ हैं, परन्तु रानी चेलना सत्यधर्म की उपासक होने से राजा के प्रेम की सर्वश्रेष्ठ पात्र है। वह रूप, लावण्य, यौवन आदि से युक्त होने से कल्पवृक्ष समान शोभती है। सदा जिनधर्म की आराधना से स्वयं तो आनंदामृत का रसपान करती ही है, परन्तु अपने पति बौद्धधर्मी श्रेणिक राजा को भी जिसने जिन-धर्म के सन्मुख किया है।
विपुलाचल पर वीर प्रभो! भव्य जीवों के संदेह निवारक श्री १०८ पूज्य सन्मति (महावीर) मुनिराज अनेक वन-उपवन एवं पर्वतों पर विहार करते हुए राजगृही नगर के विपुलाचल पर्वत पर आ विराजमान हुए। प्रचुर आत्मिक स्वसंवेदन की उग्रता में वैशाख शुक्ला दशमी के शुभ दिन उन्हें केवलज्ञान लक्ष्मी उदित हुई, जिसके शुभ चिह्न स्वर्गपुरी, मध्यलोक आदि में दूर-दूर तक उदित हो गये अर्थात् स्वर्गवासी देवों के विमानों में क्षुभित समुद्र के शब्दों के समान घंटनाद होने लगा; ज्योतिषी देवों के विमानों में सिंहनाद गुंजायमान होने लगा, जिससे ऐरावत हाथी का मद भी गलित हो गया; व्यंतर देवों के निवास स्थानों में मेघों की गर्जना को भी दबा देनेवाले दुंदुभि बाजों के शब्द होने लगे और धरणेन्द्रों व भवनवासी देवों के भवनों में मधुर ध्वनिमय शंखों की महान ध्वनियाँ होने लगीं। ___चतुर्निकाय देवों ने जब ये ध्वनियाँ सुनी, तब उनने अपने अवधिज्ञान से यह जान लिया कि पूज्य श्री सन्मति मुनिराज को केवलज्ञान सूर्य उदित हुआ है, इसीकारण हम लोगों के आसन कंपायमान हो रहे हैं। तभी देवों ने अपने-अपने सिंहासन से उठकर सात कदम आगे जाकर केवलज्ञानी वीर प्रभु को नमस्कार किया। वे जब वातावरण की ओर नजरें दौड़ाते हैं तो उन्हें चारों ओर की छटा कोई अद्भुत एवं निराली ही दिखाई देती है।
मनवांछित सिद्धि के दाता कल्पवृक्ष सम वीरप्रभु को लख कल्पवृक्ष भी दोलायमान होने लगे। उनसे निर्गत पुष्पों की वर्षा भी केवलज्ञानी प्रभु को पूजने लगी। मेघराज मानो स्वच्छ गगन से पराजित हो कहीं छिप गये, जिससे सर्व दिशायें अपनी निर्मलता को बिखेरने लगी। पृथ्वीराज भी कंटक एवं धूल रहित हो गये। वायुमंडल भी