________________
श्री जम्बूस्वामी चरित्र
श्रेणिक नृप प्रतापशाली होने से अग्निसम मानकषाय से दग्ध अभिमानी शत्रु भी उनके सामने आते ही हिम समान ठंड़े हो जाते हैं और प्रवाहशाली होने से बड़े-बड़े नृप भी कमल की सौरभ को चूसने वाले भौंरों के समान इनके निकट आ नतमस्तक हो न्याय-नीति एवं धर्म का रसपान करते हैं।
१७
[ आइये ! अब हम इसी नृप के मिथ्याबुद्धि युक्त भूतकाल का भी संक्षिप्त अवलोकन कर लें। आगम एवं लोक में सर्वत्र यह प्रसिद्ध है कि " अज्ञान समान कोई और अनर्थकारी नहीं" । जिस अभिप्राय अर्थात् मान्यता की विपरीतता ने निगोद तक की सैर अनंतों बार कराई है, उसी का एक नमूना प्रत्यक्ष भी देख लें। जिसमें अपने बौद्ध गुरुओं की चेलना द्वारा की गई परीक्षा को अपमान समझकर श्रेणिक ने अपने क्रोध का उपचार श्री वीतरागी मुनिराज पर उपसर्ग करके किया था ।]
वह प्रसंग इसप्रकार था कि अनेक नगर, पर्वत, वनादि में विहार करते हुए श्री यशोधर मुनिराज राजगृही नगरी के पर्वत पर पधारे। वे वहाँ ध्यानमग्न थे कि उसी समय राजा श्रेणिक भी वन की छटा देखने के लिए घूमते-घूमते वहाँ पहुँचे। उन्हें देखकर श्रेणिक को अपने गुरुओं के अपमान का बदला लेने का भाव हो गया । राजा ने वहीं कहीं मरे हुए सर्प को मुनिराज के ऊपर डाल दिया, जिससे अगणित चींटी आदि हो जाने से उनके काटने की पीड़ा को वीतरागी संत ने साम्यभाव से सहनकर उस पर जय प्राप्त की ।
उससमय श्रेणिक ने तीव्र मिथ्यात्व एवं अज्ञानता के कारण सातवें नरक की आयु का बंध किया था। उसी बुद्धिमान श्रेणिक ने बाद में काललब्धि और सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा विशुद्ध भाव को धारण कर श्री वर्धमान प्रभु के समवशरण में सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा विशुद्ध भाव को धारण कर क्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया। वही राजा श्रेणिक का जीव शीघ्र ही कर्मवन को दग्ध कर भावी उत्सर्पिणी काल में श्री महापद्म नाम के प्रथम तीर्थंकर होंगे।
इन्हीं राजा श्रेणिक की एक चेलना नामक रानी भी है, जो जैनधर्म परायण, पतिव्रता, व्रत, शील एवं सम्यग्दर्शन आदि गुणों से सम्पन्न भी है। यद्यपि श्रेणिक राजा के अंतःपुर में अनेक रानियाँ