________________
१७५
श्री जम्बूस्वामी चरित्र (१६) रोग परीषहजय
वात, पित्त, कफ और खून - इन चारों के घटने-बढ़ने से रोग का संयोग होता है, शरीर में जलन होने लगती है। उदर-पीड़ा होने लगती है, अंग-उपांग गलने लगते हैं इत्यादि रोगों के होने पर जगत के प्राणी कायरता धारण कर लेते हैं, विलाप करते हैं, दारुण वेदना से छूटने के लिए अग्नि आदि के द्वारा मर जाने का उपाय करते हैं, परन्तु देहातीत दशा के साधक मुनिराज आत्मा में ही लीन रहते हैं, अपने नियमों को रंचमात्र भी खंडित नहीं करते। (१७) तृण-स्पर्श परीषहजय
सूखे तृण, तीक्ष्ण नोंक वाले कांटे, करोत के समान कंकड आदि से पैर कट जाते हैं; धूल, फाँस आदि आँखों में भर जाते है, चुभ जाते हैं, अति-पीड़ा-दायक होते हैं; लेकिन फिर भी उन्हें स्वयं नहीं निकालते, वे तो सदा अस्पर्श-स्वभावी आत्मा का ही सतत स्पर्श (अनुभव) करने वाले साधु अपने में ही लीन रहते हैं, उन्हें बाधायें छू भी नहीं पातीं - ऐसे गुरुवर हमें भव-भव में शरणभूत हों। (१८) मल परीषहजय ___ अस्नानव्रत के धारी मुनीश्वर के शरीर से पसीना निकलने पर धूल आदि चिपक जाते हैं, शरीर मैला व घिनावना दिखने लगता है, लेकिन फिर भी शारीरिक मल को देखकर वे ग्लानि नहीं करते, उसे धोने या धुलाने की या कोई इसे पोंछ दे - ऐसी भावना कभी भी नहीं करते। वे तो निरन्तर अन्दर में ज्ञान-वैराग्य रस में सरावोर रहते हुए स्वभाव की शुचिता को ही अनुभवते हैं, उनके चरणों में मैं सिर नमाकर नमस्कार करता हूँ। (१९) सत्कार-पुरस्कार परीषहजय
निज स्वरूप के साधकों को महान ज्ञान प्रगट हो गया हो, अनेक विद्यायें प्रगट हुई हों, अतुल गुणों के निधान हो गये हों, फिर भी उन्हें कोई न पूजे, नमस्कार न करे, योग्य विनय आदि न करे तो उससे वे गुण-रत्नाकर अपने मन में हीन भावना नहीं लाते, वे तो एकाकी आत्म-साधना द्वारा मुक्ति को प्राप्त कर लेते