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जैनधर्म की कहानियाँ विचलित नहीं होते, आत्मा में लीन होकर कर्म कलंक का दहन करते हैं। (१२) आक्रोश परीषहजय
मुनिवरों को देखकर दुष्ट लोग, खल लोग, धर्मद्रोही जीव, क्रोध से तप्तायमान जन, उन्हें ठग छलिया, चोर, पाखंडी एवं भेषधारी कहते हैं। इन्हें मारो, पटको,' - ऐसे वचनों के तीर चुभाते हैं, लेकिन फिर भी शांति के निधान गुरुवर क्षमा-ढाल को ओढ़ लेते
(१३) वध-बंधन परीषहजय
सर्व जगत के परम मित्र निरपराधी मुनिराज को दुष्ट लोग मिलकर मारते हैं, खम्भे से बाँधते हैं, करोंत से काटते हैं. अग्नि में जलाते हैं और भी अनेक प्रकार से पीड़ा पहुँचाते हैं, लेकिन ऐसे प्रबल कर्मों के उदय में भी समता के सागर यतिराज अपनी स्वरूप की गुप्त गुफा में केलि करते हुए कैवल्य को प्राप्त कर लेते हैं - ऐसे गुरु मुझे भत-भव में शरण-सहाई हों। (१४) याचना परीषहजय
__ अयाचीक वृत्तिवंत, घोर परिषहों को जीतने वाले, परम तपोधन, उत्कृष्ट तपों को करते हैं, उनके गले, भुजायें अर्थात् पूरा शरीर सूखकर हाड़-पिंजर हो जाने पर भी, आहार-पानी या औषधि नहीं मिलने पर भी, कभी किसी से किसी तरह की याचना नहीं करते
और अपने व्रतों को भी, कभी मलिन नहीं करते। वे तो धर्म की शीतल छाया में ही सदा वास करते हैं। (१५) अलाभ परीषहजय
आनंदामृत-भोजी मुनीन्द्र दिन में एक बार भोजन को निकलते हैं और कभी-कभी एक माह, दो माह आदि का लम्बा समय निकल जाने पर भी आहार नहीं मिलता है, शरीर शिथिल हो जाता है, लेकिन फिर भी वे कभी खेदखिन्न नहीं होते, बल्कि अनाहारी पद की साधना में लवलीन रहते-रहते सिद्ध पद को प्राप्त कर लेते