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जैनधर्म की कहानियाँ हैं और जगतवंद्य हो जाते हैं, उन्हें मैं हाथ जोड़कर चरण पकड़कर नमस्कार करता हूँ। (२०) प्रज्ञा परीषहजय
तर्क छंद व्याकरण आदि के वाचस्पति, गमकत्व आदि गुणों के धारी, जिनके सामने परवादी तो देख नहीं सकते अर्थात् टिक नहीं सकते, जिनका नाम सुनते ही प्रतिवादी पीछे भाग जावें, जैसे सिंहनाद सुनते ही वन के हाथी आदि भाग जाते हैं - ऐसे बुद्धि-ऋद्धि के धारक मुनीश्वर अपनी अस्ति की मस्ती में ही मस्त रहते हैं, उन्हें उसका जरा भी मद नहीं होता है। (२१) अज्ञान परीषहजय ___ अतीन्द्रिय आत्मिक आनंद में केलि करते-करते बहुत समय हो जाने पर भी, व्रत समिति गुप्ति आदि का आगमानुसार आचरण होने पर भी, सकल संग के प्रति ममतारहित होने पर भी, अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान या केवलज्ञान आदि ऋद्धियाँ प्रगट नहीं होती तो मुनिराज को ऐसा विकल्प भी नहीं आता कि मुझे इतने तपादि करते हए इतना समय निकल जाने पर भी कोई ज्ञान-ऋद्धि क्यों नहीं प्रगट हुई ? वे उनके अभाव में अपने में हीनता नहीं अनुभवते। (२२) अदर्शन परीषहजय
बहुत समय तक घोर तप करने पर भी अभी तक कोई ऋद्धि या अतिशय नहीं प्रगटा और तप के बल से सभी सिद्धियाँ होती हैं - यह तो निश्चय है, परन्तु मुझे नहीं हुई तो ये सब बातें झूठ सी लगती हैं - ऐसा भाव तपोधनों को कभी नहीं आता, वे तो अपने सम्यक् रत्नत्रय परम शांति रस में ही पगे रहते हैं, तल्लीन रहते हैं और कर्मों का क्षय करते हैं - ऐसे मुनिवर के दर्शन से पाप नष्ट हो जाते हैं।
इसप्रकार बाईस परीषह विजयी, नित्य आनंदामृत-भोजी तपोधनों को मेरा शत-शत बार प्रणाम हो।