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श्री जम्बूस्वामी चरित्र इसलिए माते ! जिस कर्तव्य की बात आप करती हो वह बराबर है, परन्तु आप सभी प्रकार से सुयोग्य हैं। आपके कुटुम्बीजन आपके साथ हैं, घर-परिवार में किसी प्रकार की कमी नहीं है। घर में धन-धान्य की कमी नहीं है। तथा निकट में जिनमंदिर है, जहाँ पर निरंतर गुरुओं का समागम उपलब्ध रहता है, जहाँ नित्य प्रति तत्त्वचर्चा हुआ करती है और यहाँ पर किसी का कुमरण सुनने को नहीं मिलता है, समस्त ही श्रमण श्रमणोपासक अपनी आत्मसाधना द्वारा अणुव्रत और महाव्रतों का पालन करके समाधिमरण को स्वयमेव प्राप्त होते हैं, वहाँ इस छोटे से विकल्प का नाम लेकर आप मुझे क्यों रोकना चाहती हैं ? हे माते! आप बिल्कुल व्यथित न होओ
और अभी भी आत्महित में सावधान हो जाओ - यही मात्र हम सबका कर्तव्य है"
तब माता ने कुमार के सामने एक और समस्या रखी - "लेकिन बेटा! तुम्हारे चले जाने से हमारी कुल-परंपरा का क्या होगा? तुम हमारे कुल में इकलौते कुमार हो और तुम्हारी संतान नहीं होगी तो हमारी कुल-परंपरा कैसे चलेगी? क्या हमारा कुल तुम्हारे साथ ही समाप्त हो जायेगा? क्या हमारी पीढियाँ ही समाप्त हो जायेंगी? क्या इस परिवार और गोत्र का भविष्य और कुल आगे नहीं चलेगा ?"
तब कुमार अत्यंत मंद-मंद मुस्कुराते हुए मानो माता को मनाते एवं समझाते हुए बोले - "हे माते! आपको ऐसा राग होना सहज ही है, माता को अपने पुत्र से बहुत-सी आशायें होती हैं; परन्तु हे माते! आप ही कहो - महावीर प्रभु अपने माता-पिता के इकलौते कुमार थे या नहीं ? क्या उनका कुल नहीं चला? क्या उनका जिनशासन पंचम काल के अंत तक नहीं चलेगा? बोलो माते ! बोलो! जैसे वे बाल ब्रह्मचारी रहे, वैसे श्री वासुपूज्यजी, श्री मल्लिनाथजी, श्री नेमिनाथजी, श्री पार्श्वनाथजी बालब्रह्मचारी रहे, तो क्या उनका नाम इस पृथ्वीतल पर जीवित नहीं है ?
हे माता! यदि खोटी वासनाओं और पापों में रचे-पचे लोगों की बहुत सन्तान भी हैं, परन्तु यदि वे आत्महित से विमुख हैं, विषय-वासनाओं में रंगी-पगी हैं, देव-शास्त्र-गुरु से विमुख हैं, आगम की मर्यादा से उल्लंघनमयी जिनका जीवन है। हे माते! उनके कुल