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जैनधर्म की कहानियाँ उससमय माताजी आकुलित चित्त से कमरे के बाहर यहाँ-वहाँ डोल रही थीं, वह आँचल में अपना मुँह ढककर जोर-जोर से रो पड़ीं और फिर विह्वल स्वर में जोर से बोलीं - "हे कुमार! तुम इतने कठोर क्यों हो गये हो? तुम बार-बार ऐसी हठ क्यों करते हो? कुछ समय के लिए तो तुम इसे भूल जाओ। कुछ समय के लिए तो इन वधुओं की ओर देखो। थोड़ी देर हमारी ओर भी तो देखो। क्या तुम हमें दुःखी करके प्रसन्न हो सकोगे? क्या हमने इसी के लिए तुम्हें पाल-पोषकर बड़ा किया है? क्या तुम्हारा ये कर्तव्य नहीं है कि यथायोग्य रीति से गृहस्थ-धर्म को पालते हुए हम सबका निर्वाह करो? अंत में हमारा समाधि-मरण सम्पन्न कराओ, क्या योग्य बालक का ये सब कर्त्तव्य नहीं है? हे पुत्र ! सावधान होकर हमारी इस देह की ओर देखो और सन्निकट आती हुई मृत्यु की ओर देखो, हमें स्थिति-करण कराने में तुम ही समर्थ हो, हमें संबोधित करो। कुछ दिन तो रुको।"
माता का रुदन सुनकर कुमार एवं चारों वधुयें दौड़ी-दौड़ी बाहर आईं। तब कुमार बोले - “हे माते! आप इतनी दुःखी क्यों हो रही हो? आप तो धार्मिक रुचिवंत हो, शास्त्राभ्यासी हो। धैर्य धारण करो माते ! शांत चित्त से सोचो माते! संसार में विषय-कषायों में रचे-पचे रहनेवाले कितने सुखी हैं? यदि संसार में सुख होता तो श्री शांतिनाथ आदि तीन तीर्थंकर तो तीन-तीन पदवियों के धारी थे, उन्होंने क्यों दीक्षा ली? उनके ऊपर तो छह खण्ड का भार भी था, फिर उन्होंने अपने कर्त्तव्य के सम्बंध में कुछ क्यों नहीं सोचा? अरे! सीताजी ने इतने छोटे-छोटे लव-कुश जैसे मोक्षगामी बच्चों के प्रति कुछ कर्त्तव्य नहीं सोचा?
अच्छा जाने भी दो उनकी बात, यदि हमारे इस परिवार में किसी की मृत्यु हो जाये तब कौन कर्त्तव्य निभायेगा? यदि आपका ही मेरे पहले गृहस्थी का राग छूट गया होता तो क्या आप मेरे प्रति अपना कर्तव्य निभातीं? सुकुमाल के पिताजी सुकुमाल का जन्म होते ही उसका मुख देखकर उसके ऊपर गृह की जिम्मेदारी सौंप कर तत्काल दीक्षित हो गये, क्या उनका कर्त्तव्य नहीं था कि बालक को बड़ा हो जाने तक गृह में रहते ?