________________
श्री जम्बूस्वामी चरित्र
१३१ जा न सके। हर बात में पराधीनता। तथा वृद्धावस्था में अपने पुत्रों के आधीन रहना पड़े - क्या ऐसी पराधीनता तुम्हें शोभती है?
क्या गृहस्थों की आकुलता-व्याकुलता, पराधीनता इस आत्म-सामर्थ्य के सामने शोभा देती है? और क्या तुम आत्महित करने में समर्थ नहीं हो? जो ऐसा पामर परिणाम बारंबार लाती हो? और अब रही मेरे समागम में आत्महित करने की बात तो कौन किसके समागम में आत्महित कर सकता है? जब हमारे सन्मुख हमारे गुरु हों - आचार्य-उपाध्याय-साधु हों, साक्षात् जिनदेशना हो, वहाँ परावलम्बन की आवश्यकता ही कहाँ शेष रह जाती है? इसलिए किसी भी प्रकार की कमी या अभाव का अनुभव किये बिना तुम आत्महित का साधन करो। यही एकमात्र उत्तम और पवित्र कार्य है। यही करने योग्य है।" __ इतने में ही बात काटते हुए कनकधी बोली - “परन्तु स्वामिन् ! हमको आत्म-अभ्यास करने के लिए कुछ तो समय दीजिए।"
"अभ्यास? कैसा अभ्यास? अभी-अभी हमने तुम्हें सुकुमालजी की बात कही थी, उनने कैसा अभ्यास किया था? परन्तु दूसरी ओर से देखा जाये तो क्या तुमने सांसारिक दुःखों को सहने का अभ्यास किया था? क्या तुमने नरक जाने का अभ्यास किया था ? क्या तुमने पशु पर्याय के अनंत दुःखों को सहने का अभ्यास किया था? क्या माता के पेट में नौ-नौ महिने उल्टे मुँह लटके रहकर वहाँ की अगणित वेदनाओं को सहन करने का अभ्यास किया था? क्या तुमने सुहागन होने का अभ्यास किया था? क्या तुम विधवा होने का अभ्यास करोगी? इनमें से कौन-कौन से दुःखों को सहन करने का अभ्यास तुमने किया था? परन्तु तुम उन दुःखों को भोगती हो कि नहीं? ठीक, इसी प्रकार एकमात्र आत्मतत्व का निर्णय और अनुभव ही कर्तव्य है। शरीर का अभ्यास, अभ्यास करने योग्य नहीं है। उत्कृष्ट तीव्र वैराग्य के परिणाम हों तो बहिरंग देह के अभ्यास की किंचित् भी आवश्यकता नहीं पड़ती। इसलिए अत्यन्त सावधान होकर अपने पवित्र परिणामों की पवित्रता बढ़ाओ, विरक्ति बढ़ाओ, परिणामों की रुचि और समर्पणता बढ़ाओ तो तुम्हारा हित अवश्य ही होगा।"