________________
१३०
जैनधर्म की कहानियाँ
तो दूर, कल्पना मात्र करने के लिये भी जीवित नहीं रहना चाहेंगी ।" पश्चात् प्रसन्न - चित्त कुमार शांत होकर आत्म-विचारों में निमग्न हो गये। तब रूपश्री बोली " आप हमारे प्राणाधार हो, हमारे प्राणों की रक्षा कीजिए, हम आपके बिना जीवित नहीं कर सकेंगी। हमने आजीवन आपकी ही शरण ग्रहण कर आपके चरणारविन्द में ही रहने की प्रतिज्ञा की है । हे स्वामिन्! हम पर अनुग्रह कीजिए ।"
-
तब विरक्त कुमार बोले "कौन किस पर अनुग्रह करे ? और कौन किसके आधीन है ? जब समस्त द्रव्य स्वतंत्र हैं, किसी को किसी की आधीनता या अपेक्षा नहीं है, प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने में अनंत सामर्थ्य लिए हुए बैठा है, अनंत स्वाधीनतामय है, तब पराधीनता का विकल्प ही झूठा है।
हे भद्रे ! क्या तुम्हें ये स्त्री पर्याय अच्छी लगती है ? क्या ये दुख लगते हैं? क्या ये पराधीनता तुम्हें अब भी शोभती है ? जब तुमने वीर-शासन पाया, जिन- शासन पाया, मंगलमयी वीतरागी वाणी पाई, सच्चे देव-शास्त्र-गुरु पाये, साक्षात् गुरुओं का समागम पाया और ऐसे उत्तम संस्कार पाये, क्या अब भी तुम्हें ये पराधीनता मिटाने का परिणाम नहीं आता है ? अनादिकाल से पराधीनता और प्रतीक्षा के परिणाम और अपेक्षा ने ही तुमको ये दासत्व दिया है, उससे ही ये स्त्री देह मिली है। अब तो स्वाधीनता का अनुभव करो और निरपेक्ष होकर आत्मा का अनुभव करके इस स्त्री- पर्याय को छेदकर अल्पकाल में ही जिनदीक्षा धारण करके सिद्धालय में वास करो - इसमें ही एकमात्र तुम्हारी शोभा है।
हाय, हाय, स्त्रियाँ निमित्तों की प्रतीक्षा करती हैं, संयोगों में ही रहकर अपने को कृतकृत्य अनुभव करतीं हैं और उनकी यही परधीनता का परिणाम पराधीन देह और पराधीन भव का कारण बनता है। बचपन में माता-पिता की पराधीनता, उनकी प्रतीक्षा, उनकी आज्ञा के बिना कोई काम न कर सके। युवा होने पर पति को आज्ञा की प्रतीक्षा, उनसे पहले भोजन तक न कर सके, उनके आने पर उनके भोजन कर लेने के बाद ही भोजन कर सके, उनकी आज्ञा के बिना शयन भी न कर सके। तुम्हें कहीं तीर्थयात्रा या मंगलकार्यों में जाने की भावना हो तो पति की आज्ञा के बिना