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जैनधर्म की कहानियाँ हूँ। देखता हूँ तेरे दृढ़ साहस का बल।"
__ जम्बूकुमार की यह बात रत्नचूल को सहसा मान्य नहीं हुई, इसलिए कुछ समय तक वह दुविधा में पड़ा रहा। कषाय का वेग जब कुछ मंद पड़ा, तब रत्नचूल को लगा - "मैं भी अजेय योद्धा हूँ। मुझे भी सेना की जरूरत नहीं है, मैं अकेला ही इसके साथ युद्ध कर सकता हैं।"
रत्नचूल-जम्बूकुमार का पुन: युद्ध ___दयालु वीर जम्बूकुमार पुनः युद्ध क्षेत्र में आये। वहाँ का दृश्य उनकी आँखें देख नहीं पा रही हैं। कहीं मात्र सिर पड़े हैं. कहीं मात्र हाथ-पैर पड़े हैं, कहीं मात्र धड़ पड़े हैं, तो कहीं मात्र अंतड़ियाँ पड़ी हैं। चारों तरफ खून ही खून दीख रहा है। कुमार के अन्तर में एक ओर वैराग्य उमड़ रहा है, जो उनके मन को युद्ध करने से रोक रहा है; परन्तु दूसरी ओर वीर योद्धा की भुजाएँ फड़क रही हैं और कह रही हैं कि मानी के मान का मर्दन होना ही चाहिए।
रत्नचूल एवं जम्बूकुमार दोनों वीर योद्धाओं का अनेक प्रकार के शस्त्रों से युद्ध होने लगा। वज्रशरीरी जम्बूकुमार को अजेय जान रत्नचूल ने कुमार पर नागबाण छोड़ा, परन्तु कुमार ने उसे लीलामात्र में गरुड़ बाण से नष्ट कर दिया। उसे नष्ट होते देख रत्नचूल क्रोधाग्नि से धधक उठा और उसने अग्निबाण छोड़ा, परन्तु हिम-समान शीतल हृदयी कुमार ने शीतल जल-वर्षा से उसे भी शांत कर दिया और रत्नचूल को तोमर शस्त्र मारा तो रत्नचूल ने उसे हाथ में उठाकर घुमाते हुए कुमार पर प्रहार किया, परन्तु कुमार ने शीघ्र ही वाणों से उस शस्त्र के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। बिजली के समान वे घातक टुकड़े रत्नचूल के कंधों पर जा गिरे, इसलिए रत्नचूल पृथ्वी पर आ पड़ा। रत्नचूल ने फिर से एक अन्य शस्त्र हाथ में उठाया, उसी समय जम्बूकुमार ने उसे मुटिठयों की मार से चूर्ण कर बंदी बना लिया और मृगांक को बंधन मुक्त कराया। जम्बूकुमार की विजय की खुशहाली में देवों ने भी देवलोक से पुष्पों की वर्षा की। केरल में बाजों की ध्वनि के साथ जयनाद भी होने लगा।